Saturday, June 30, 2007

अल्मोड़ा

उत्तरांचल

अल्मोड़ा

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हल्द्वानी, काठगोदाम और नैनीताल से नियमित बसें अल्मोड़ा जाने के लिए चलती हैं। ये सभी बसे भुवाली होकर जाती हैं। भुवाली से अल्मोड़ा जाने के लिए रामगढ़, मुक्तेश्वर वाला मार्ग भी है। परन्तु अधिकांश लोग गरमपानी के मार्ग से जाना ही अदिक उत्तम समझते हैं। क्योंकि यह मार्ग काफी सुन्दर तथा नजदीकी मार्ग है।

भुवाली, हल्द्वानी से ४० कि.मी. काठगोदाम से ३५ कि.मी. और नैनीताल से ११ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। तथा भुवाली से अल्मोड़ा ५५ कि.मी. की दूरी पर बसा हुआ है।

कैंची

कैंची, भुवाली से ७ कि.मी. की दूरी पर भुवालीगाड के बायीं ओर स्थित है। नीम करौली बाबा को यह स्थान बहुत प्रिय था। प्राय: हर गर्मियों में वे यहीं आकर निवास करते थे। बाबा के भक्तों ने इस स्थान पर हनुमान का भव्य मन्दिर बनवाया। उस मन्दिर में हनुमान की मूर्ति के साथ-साथ अन्य देवताओं की मूर्तियाँ भी हैं। अब तो यहाँ पर बाबा नीम करौली की भी एक भव्य मूर्ति स्थापित कर दी गयी है।

यहाँ पर यात्रियों के ठहरने के लिए एक सुन्दर धर्मशाला भी है। यहाँ पर देश-विदेश के आये लोग प्रकृति का आनन्द लेते हैं।

कैंची मन्दिर में प्रतिवर्ष १५ जून को वार्षिक समारोह मानाया जाता है। उस दिन यहाँ बाबा के भक्तों की विशाल भीड़ लगी रहती है। नवरात्रों में यहाँ विशेष पूजन होता है। नीम करौली बाबा सिद्ध पुरुष थे। उनकी सिद्धियों के विषय में अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि बाबा पर हनुमान की विशेष कृपा थी। हनुमान के कारण ही उनकी ख्याति प्राप्त हुई थी। वे जहाँ जाते थे वहीं हनुमान मन्दिर बनवाते थे। लखनऊ का हनुमान मन्दिर भी उन्होंने ही बनवाया था। ऐसा कहा जाता है कि बाबा को 'हनुमान सिद्ध' था।

उनका नाम नीम करौली पड़ने के सम्बन्ध में एक कथा कही जाती है। बहुत पहले बाबा एक साधारण व्यक्ति थे। नीम करौली गाँव में रहकर हनुमान की साधना करते थे, एक बार उन्हें रेलगाड़ी में बैठने की इच्छा हुई। नीम करौली के स्टेशन पर जैसे ही गाड़ी रुकी, बाबाजी रेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में जाकर बैठ गए। कंडक्टर गार्ड को जैसे ही ज्ञात हुआ कि बाबाजी बिना टिकट के बैठे हैं तो उन्होंने कहा कि बाबाजी, आप गाड़ी से उतर जाएँ। बाबाजी मुस्कुराते हुए गाड़ी के डिब्बे से उतरकर स्टेशन के सामने ही आसन जमाकर बैठ गए। उधर गार्ड ने सीटी बजाई, झंडी दिखाई और ड्राइवर ने गाड़ी चलाने का सारा उपक्रम किया, किन्तु गा#ी एक इंच भी आगे न बढ़ सकी। लोगों ने गार्ड से कहा कि कंडक्टर गार्ड ने बाबाजी से अभद्रता की है। इसीलिए उनके प्रभाव के कारण गाड़ी आगे नहीं सरक पा रही है। परन्तु रेल कर्मचारियों ने बाबा को ढोंगी समझा। गाड़ी को चलाने के लिए कई कोशिशें की गयीं। कई इंजन और लगाए गए परन्तु गाड़ी टस से मस तक न हुई। अन्त में बाबा की शरण में जाकर कंडक्टर, गार्ड और ड्राइवर ने क्षमा माँगी। उन्हें आदर से प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बिठाया। जैसे ही बाबा डिब्बे में बैठे, वैसे ही गाड़ी चल पड़ी। तब से बाबा 'नीम करौली बाबा' पड़ा। तब से अपने चमत्कारों के कारण वे सब जगह विख्यात हो गये थे। अपनी मृत्यु की अन्तिम तिथि तक भी वे हनुमान के मन्दिरों को बनवाने का कार्य करते रहे और दु:खी व्यक्तियों की सेवा करते रहे।

कैंची में भी कई दुखियों की उन्होंने सेवा की थी। उनके पास कोई व्यक्ति क्यों आया है? यह बात वे पहले ही कहकर आगंतुक को आश्चर्य में डाल देते थे। आज भी बाबा के नाम पर कैंची में भोज का आयोजन होता है।

गरम पानी :

कैंची से आगे 'गरमपानी' नामक एक छोटा सा नगर आता है। यह स्थान हल्द्वानी, काठगोदाम और अल्मोड़ा के बीच का ऐसा स्थान है जहाँ पर यात्री चाय पीने और भोजन करने के लिए आवश्यक रुप से रुकते हैं। गरमपानी का पहाड़ी भोजन प्रसिद्ध है। यहाँ का रायता और आलू के हल्दी से रंग गुटके दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। हरी सब्जियों की यह मण्डी है। यहाँ से दूर-दूर तक पहाड़ी सब्जियाँ भेजी जाती हैं। पहाड़ी खीरे, मूली और अदरक आदि के लिए भी गरमपानी विख्यात है।

यहाँ से आगे बढ़ने पर खैरना आता है। खैरना में भुवालीगाड, कोसी में मिल जाती है। यहीं कोसी पर एक झूला पुल है। खैरना मछिलयों के शिकार के लिए विख्यात है। थोड़ा और आगे बढ़ने पर दो रास्ते हो जाते हैं। एक मार्ग रानीखेत को और दूसरा मार्ग अल्मोड़ा को चला जाता है।

अल्मोड़ा के मार्ग में खैरना से आगे काकड़ी घाट नामक स्थान पड़ता है। काकड़ी घाट का प्राचनी महत्व है। यहाँ पर एक पुराना शिव मन्दिर है। जब पर्वतीय अंचल में मोटर मार्ग नहीं थे तो बद्रीनाथ जाने के लिए यहीं से पैदल मार्ग कर्णप्रयाग के लिए जाता था। आज भी कई धार्मिक यात्री इसी मार्ग से पैदल चलकर बद्रीनाथ-केदारनाथ की यात्रा करने जाते हैं।

काकड़ी घाट के नजदीक ही एक पुल कोसी पर बना है। उस पुल को पार करते ही मोटर-मार्ग पहाड़ी की चोटी की ओर बढ़ने लगता है। यह पर्वतीय मार्ग-ऐतिहासिक नगरी अल्मोड़ा में आता है।

'अल्मोड़ा' समुद्रतल से १६४६ मीटर की ऊँचाई पर ११.९ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह नगरी पहाड़ी के दोनों ओर पर्वत-चोटी पर बसा हुआ है। पहाड़ के एक छोर से दूसरे छोर तक लाला बाजार है। यह बाजार बहुत पुराना है और सुन्दर कटे पत्थरों से बनाया गया है। इसके अलावा अल्मोड़ा में अन्य सड़कें भी इतनी अच्छी बनी हुई हैं कि पर्यटक उन्हीं पर घूम-घूमकर प्रकृति का वास्तविक आनन्द लेते रहते हैं। चारों तरफ हरे-भरे जंगलों का सौन्दर्य अपने आप में एक विशेष आकर्षण पैदा करता है। वसन्त ॠतु में अल्मोड़ा की छवि दर्शनीय हो जाती है। यह अत्यन्त स्वास्थ्यवर्धक जलवायु वाला पर्वतीय नगर है इसीलिए गर्मियों में यहाँ अधिक चहल-पहल रहती है और सैलानियों का जमघट लगा रहता है।

कुमाऊँनी संस्कृति का केन्द्र अल्मोड़ा है। कुमाऊँ के रसीले गीतों और उल्लासप्रिय लोकनृत्यों की वास्तविक झलक अल्मोड़ा में ही दिखाई देती है। कुमाऊँनी भाषा का प्रामाणिक स्थल भी यही नगर है। कुमाऊँनी वेशभूषा का असली रुप अल्मोड़ा में ही दिखाई देता है। आधुनिकता के दर्शन भी अल्मोड़ा में पूर्णत: हो जाते हैं। पहाड़ी भोजन के होटल यहाँ कई हैं। मिठाईयों में भी बाल मिठाई यहाँ की प्रसिद्ध है।

कुमाऊँ के भव्य दर्शन करने हेतु पर्यटक अल्मोड़ा आना अधिक पसन्द करते हैं। यहाँ से हिमालय के दर्शन भी हो जाते हैं और कुमाऊँनी जन-जीवन की वास्तविक जानकारी भी हो जाती है।

यहाँ कुछ ऐसे स्थल हैं जो पर्यटकों, पदारोहियों और सैलानियों को आकर्षित करते रहते हैं।

अल्मोड़ा के किले :

अल्मोड़ा नगर के पूर्वी छोर पर 'खगमरा' नामक किला है। कत्यूरी राजाओं ने इस नवीं शताब्दी में बनवाया था। दूसरा किला अल्मोड़ा नगर के मध्य में है। इस किले का नाम 'मल्लाताल' है। इसे कल्याणचन्द ने सन् १५६३ ई. में बनवाया था। कहते हैं, उन्होंने इस नगर का नाम आलमनगर रखा था। वहीं चम्पावत से अपनी राजधानी बदलकर यहाँ लाये थे। आजकल इस किले में अल्मोड़ा जिले के मुख्यालय के कार्यलय हैं। तीसरा किला अल्मोड़ा छावनी में है, इस लालमण्डी किला कहा जाता है। अंग्रेजों ने जब गोरखाओं को पराजित किया था तो इसी किले पर सन् १८१६ ई. में अपना झण्डा फहराया था। अपनी खुशी प्रकट करने हेतु उन्होंने इस किले का नाम तत्कालीन गवर्नर जनरल के नाम पर - 'फोर्ट मायरा' रखा था। परन्तु यह किला 'लालमण्डी किला' के नाम से अदिक जाना जाता है। इस किले में अल्मोड़ा के अनेक स्थलों के भव्य दर्शन होते हैं।

नन्दा देवी मन्दिर :

गढ़वाल कुमाऊँ की एक मात्र ईष्ट देवी भगवती नन्दा पार्वती है। नन्दा अष्टमी के दिन सम्पूर्मम पर्वतीय अंचल में नन्दा की विशेष पूजा होती है। नन्दा देवी की मूर्ती केले के पत्तों और केले के तनों से बनाई जाती है। नन्दा की सवारी भी निकाली जाती है। नन्दा अष्टमी भाद्रपद अर्थात् सितम्बर के महीने में आती है।

यहाँ पर इस दिन बहुत बड़ा मेला लगता है। इस दिन दर्शनार्थी आकर पूजा करते हैं। मेले में झोड़ा, चाँचरी और छपेली आदि नृत्यों का भी सुन्दर आयोजन होता है। कुमाऊँ के कई अंचलों की लोकनृत्य की पार्टियाँ यहाँ आकर अपना-अपना कौशल दिखाती हैं, पर्यटक, पदारोही, सैलानी और साहित्य एवं कला प्रेमी इन्ही दिनों अधिकतर कुमाऊँ की संस्कृति तता वहाँ के जन-जीवन की वास्तविक जानकारी करने हेतु अल्मोड़ा पहुँचते हैं। अल्मोड़ा की नन्दा देवी के दर्शन करना अत्यन्त लाभकारी माना जाता है। अल्मोड़ा में नन्दा देवी के अलावा त्रिपुर सुन्दरी मन्दिर, रघुनाथ मन्दिर, महावीर मन्दिर, मुरली मनोहर मन्दिर, भैरवनाथ मन्दिर, बद्रीनाथ मन्दिर, रत्नेश्वर मन्दिर और उलका देवी मन्दिर प्रसिद्ध हैं।

जामा मस्जिद, मैथोडिस्ट चर्च और अंगलीकन चचें प्रसिद्ध है।

कसार देवीमंदिर :

यह मुख्य नगर से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर से हिमालय की ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियों के दर्शन होते हैं। कसार देवी का मंदिर भी दुर्गा का ही मंदिर है। कहते हैं कि इस मंदिर की स्थापना ईसा के दो वर्ष पहले हो चुकी थी। इस मंदिर का धार्मिक महत्व बहुत अधिक आंका जाता है।

चित्तई मंदिर :

कुमाऊँ के प्रसिद्ध लोक - देवता 'गोल्ल' का यह मंदिर नन्दा देवी की तरह प्रसिद्ध है। इस मंदिर का महत्व सबसे अधिक बताया जाता है। अल्मोड़ा से यह मंदिर ६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हिमालय की कई दर्शनीय चोटियों के दर्शन यहाँ से होते हैं।

कालीमठ :

यह अल्मोड़ा से ५ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। एक ओर हिमालय का रमणीय दृश्य दिखाई देता है और दूसरी ओर से अल्मोड़ा शहर की आकर्षक छवि मन को मोह लेती है। प्रकृतिप्रेमी, कला प्रेमी और पर्यटक इस स्थल पर घण्टों बैठकर प्रकृति का आनन्द लेते रहते हैं। गोरखों के समय राजपंडित ने मंत्र बल से लोहे की शलाकाओं को भ कर दिया था। लोहभ के पहाड़ी के रुप में इसे देखा जा सकता है।

सिमतोला :

यह अल्मोड़ा नगर से ३ कि.मी. की दूरी पर 'सिमतोला' का 'पिकनिक स्थल' सैलानियों का स्वर्ग है। प्रकृति के अनोखे दृश्यों को देखने के लिए हजारों पर्यटक इस स्थल पर आते-जाते रहते हैं।

मोहनजोशी पार्क :

इस जगह पर एक ताल का निर्माण किया गया है। मानव निर्मित 'v' आकार के इस ताल की सुन्दरता इतनी आकर्षक है कि सैलानी घंटों इसी के पास बैठकर प्रकृति की अद्भुत छवि का आनन्द लेते रहते हैं। यहाँ का मोहक और शान्त वातावरण पर्यटकों के लिए काफी सुखद अनुभव रहता है।

मटेला:

मटेला का सुखद वातावरण सैलानियों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र है। यहाँ के बाग अत्यन्त सुन्दर हैं। 'पिकनिक' के लिए कई पर्यटक यहाँ अपने-अपने दलों के साथ आते हैं।

नगर से १० कि.मी. की दूरी पर एक प्रयोगात्मक फार्म भी है।

राजकीय संग्रहालय :

अल्मोड़ा में राजकीय संग्रहालय और कला-भवन भी है। कला प्रेमियों तथा इतिहास एवं पुरातत्व के जिज्ञासुओं के लिए यहाँ पर्याप्त सामाग्री है।

ब्राइट एण्ड कार्नर :

यह अल्मोड़ा के बस स्टेशन से केवल २ कि.मी. कब हूरी पर एक अद्भुत स्थल है। इस स्थान से उगते हुए और डूबते हुए सूर्य का दृश्य देखने हजारों मील से प्रकृति प्रेमी आते रहते हैं।

इंगलैण्ड में 'ब्राइट बीच' है। उस 'बीच' से भी डूबते और उगते सूरज का दृश्य चमत्कारी प्रभाव डालने वाला होता है। उसी 'बीच' के नाम पर अल्मोड़ा के इस 'कोने' का नाम रखा गया है।

अल्मोड़ा सुन्दर आकर्षक और अद्भुत है। इसीलिए नृत्य-सम्राट उदयशंकर को यह स्थान इतना भाया था कि उन्होंने अपनी 'नृत्यशाला' यहीं बनायी थी। उनके कई विश्वविख्यात नृत्यकार शिशुओं ने अल्मोड़ा की रमणीय धरती में ही नृत्य कला की प्रथम शिक्षा ग्रहण की थी।

उदयशंकर की तरह विश्वकवि रविन्द्रनाथ टैगोर को भी अल्मोड़ा पसन्द था। वे यहाँ कई दिन तक रहे।

विश्व में वेदान्त का शंखनाद करने वाले स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा में आकर अत्याधिक प्रसन्न हुए थे। उन्हें इस स्थान में आत्मिक शान्ति मिली थी।








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नैनीताल

कुमाऊँ क्षेत्र में नैनीताल जिले का विशेष महत्व है। देश के प्रमुख क्षेत्रों में नैनीताल की गणना होती है। यह 'छखाता' परगने में आता है। 'छखाता' नाम 'षष्टिखात' से बना है। 'षष्टिखात' का तात्पर्य साठ तालों से है। इस अंचल मे पहले साठ मनोरम ताल थे। इसीलिए इस क्षेत्र को 'षष्टिखात' कहा जाता था। आज इस अंचल को 'छखाता' नाम से अधिक जाना जाता है। आज भी नैनीताल जिले में सबसे अधिक ताल हैं।

यहाँपर 'नैनीताल' जो नैनीताल जिले के अन्दर आता है। यहाँ का यह मुख्य आकर्षण केन्द्र है। तीनों ओर से घने-घने वृक्षों की छाया में ऊँचे - ऊँचे पहाड़ों की तलहटी में नैनीताल समुद्रतल से १९३८ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस ताल की लम्बाई १,३५८ मीटर, चौड़ाई ४५८ मीटर और गाहराई १५ से १५६ मीटर तक आंकी गयी है। नैनीताल के जल की विशेषता यह है कि इस ताल में सम्पूर्ण पर्वतमाला और वृक्षों की छाया स्पष्ट दिखाई देती है। आकाश मण्डल पर छाये हुए बादलों का प्रतिविम्भ इस तालाब में इतना सुन्दर दिखाई देता है कि इस प्रकार के प्रतिबिम्ब को देखने के लिए सैकड़ो किलोमीटर दूर से प्रकृति प्रेमी नैनीताल आते - जाते हैं। जल में विहार करते हुए बत्तखों का झुण्ड, थिरकती हुई तालों पर इठलाती हुई नौकाओं तथा रंगीन बोटों का दृश्य और चाँद - तारों से भरी रात का सौन्दर्य नैनीताल के#े ताल की शोभा बढ़ाने में चार - चाँद लगा देता है। इस ताल के पानी की भी अपनी विसेषता है। गर्मियों में इसका पानी हरा, बरसात में मटमैला और सर्दियों में हल्का नीला हो जाता है।



नैनीताल के ताल के दोनों ओर सड़के हैं। ताल का मल्ला भाग मल्लीताल और नीचला भाग तल्लीताल कहलाता है। मल्लीताल में फ्लैट का खुला मैदान है। मल्लीताल के फ्लैट पर शाम होते ही मैदानी क्षेत्रों से आए हुए सैलानी एकत्र हो जाते हैं। यहाँ नित नये खेल - तमाशे होते रहते हैं। संध्या के समय जब सारी नैनीताल नगरी बिजली के प्रकाश में जगमगाने लगती है तो नैनीताल के ताल के देखने में ऐसा लगता है कि मानो सारी नगरी इसी ताल में डूब सी गयी है। संध्या समय तल्लीताल से मल्लीताल को आने वाले सैलानियों का तांता सा लग जाता है। इसी तरह मल्लीताल से तल्लीताल (माल रोड) जाने वाले प्रकृतिप्रेमियों का काफिला देखने योग्य होता है।

नैनीताल, पर्यटकों, सैलानियों पदारोहियों और पर्वतारोहियों का चहेता नगर है जिसे देखने प्रतिवर्ष हजारों लोग यहाँ आते हैं। कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं जो केवल नैनीताल का "नैनी देवी" के दर्शन करने और उस देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने की अभिलाषा से आते हैं। यह देवी कोई और न होकर स्वयं 'शिव पत्नी' नंदा (पार्वती) हैं। यह तालाब उन्हीं की स्मृति का द्योतक है। इस सम्बन्ध में पौराणिक कथा कही जाती है।

नैनीदेवी का नैनीताल : पौराणिक कथा के अनिसार दक्ष प्रजापति की पुत्री उमा का विवाह शिव से हुआ था। शिव को दक्ष प्रजापति पसन्द नहीं करते थे, परन्तु यह देवताओं के आग्रह को टाल नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह न चाहते हुए भी शिव के साथ कर दिया था। एक बार दक्ष प्रजापति ने सभी देवताओं को अपने यहाँ यज्ञ में बुलाया, परन्तु अपने दामाद शिव और बेटी उमा को निमान्त्रण तक नहीं दिय। उमा हठ कर इस यज्ञ में पहुँची। जब उसने हरिद्वार स्थित कनरवन में अपने पिता के यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपने पति और अपनी निरादर होते हुए देखा तो वह अत्यन्त दु:खी हो गयी। यज्ञ के हवनकुण्ड में यह कहते हुए कूद पड़ी कि 'मैं अगले जन्म में भी शिव को ही अपना पति बनाऊँगी। अपने मेरा और मेरे पति का जो निरादर किया इसके प्रतिफल - स्वरुप यज्ञ के हवन - कुण्ड में स्यवं जलकर आपके यज्ञ को असफल करती हूँ।' जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उमा सति हो गयी, तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने अपने गणों के द्वारा दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट - भ्रष्ट कर डाला। सभी देवी - देवता शिव के इस रौद्र - रुप को देखकर सोच में पड़ गए कि शिव प्रलय न कर ड़ालें। इसलिए देवी - देवताओं ने महादेव शिव से प्रार्थना की और उनके क्रोध के शान्त किया। दक्ष प्रजापति ने भी क्षमा माँगी। शिव ने उनको भी आशीर्वाद दिया। परन्तु, सति के जले हुए शरीर को देखकर उनका वैराग्य उमड़ पड़ा। उन्होंने सति के जले हुए शरीर को कन्धे पर डालकर आकाश - भ्रमण करना शुरु कर दिया। ऐसी स्थिति में जहाँ - जहाँ पर शरीर के अंग किरे, वहाँ - वहाँ पर शक्ति पीठ हो गए। जहाँ पर सती के नयन गिरे थे ; वहीं पर नैनादेवी के रुप में उमा अर्थात् नन्दा देवी का भव्य स्थान हो गया। आज का नैनीताल वही स्थान है, जहाँ पर उस देवी के नैन गिरे थे। नयनों की अप्पुधार ने यहाँ पर ताल का रुप ले लिया। तबसे निरन्तर यहाँ पर शिवपत्नी नन्दा (पार्वती) की पूजा नैनादेवी के रुप में होती है।

यह भी एक विशिष्ट उदाहरण है कि समस्त गढ़वाल - कुमाऊँ की एकमात्र इष्ट देवी 'नन्दा' ही है। इस पर्वतीय अंचल में नन्दा की पूजा और अर्चना जिस ढ़ंग से की जाती है -- वह अन्यत्र देखने में नहीं आती।

नैनीताल ते ताल की बनावट भी देखें तो वह आँख की आकृति का 'ताल' है। इसके पौराणिक महत्व के कारण ही इस ताल की श्रेष्ठता बहुत आँकी जाती है। नैनी (नंदा) देवी की पूजा यहाँ पर पुराण युग से होती रही है।

कुमाऊँ के चन्द राजाओं की इष्ट देवी भी नन्दा ही थी, जिकी वे निरन्तर यहाँ आकर पूजा करते रहते थे। एक जनश्रुति ऐसी भी कही जाती है कि चंदवंशीय राजकुमारी ननद नन्दा थी जिसको एक देवी के रुप में पूजी जाने लगी। परन्तु इस कथा में कोई दम नहीं है, क्योंकी समस्त पर्वतीय अंचल में नन्दा को ही इष्ट देवी के रुप में स्वीकारा गया है।

गढ़वाल और कुमाऊँ के राजाओं की भी नन्दा देवी इष्ट रही है। गढ़वाल और कुमाऊँ की जनता के द्वारा प्रतिवर्ष नन्दा अष्टमी के दिन नंदापार्वती की विसेष पूजा होती है। नन्दा के मायके से ससुराल भेजने के लिए भी 'नन्दा जात' का आयोजन गढ़वाल - कुमाऊँ की जनता निरन्तर करती रही है। अतः नन्दापार्वती की पूजा - अर्चना के रुप में इस स्थान का महत्व युग - युगों से आंका गया है। यहाँ के लोग इसी रुप में नन्दा के 'नैनीताल' की परिक्रमा करते आ रहे हैं।



त्रिॠषि सरोवर :

'नैनीताल' के सम्बन्ध में एक और पौराणिक कथा प्रचलित है। 'स्कन्द पुराण' के मानस खण्ड में एक समय अत्रि, पुस्त्य और पुलह नाम के ॠषि गर्गाचल की ओर जा रहे थे। मार्ग में उन्हे#े#ं यह स्थान मिला। इस स्थान की रमणीयता मे वे मुग्ध हो गये परन्तु पानी के अभाव से उनका वहाँ टिकना (रुकना) और करना कठीन हो गया। परन्तु तीनों ॠथियों ने अपने - अपने त्रिशुलों से मानसरोवर का स्मरण कर धरती को खोदा। उनके इस प्रयास से तीन स्थानों पर जल धरती से फूट पड़ और यहाँ पर 'ताल' का निर्माण हो गया। इसिलिए कुछ विद्वान इस ताल को 'त्रिॠषि सरोवर' के नाम से पुकारा जाना श्रेयस्कर समझते हैं।

कुछ लोगों का मानना हे कि इन तीन ॠषियों ने तीन स्थानों पर अलग - अलग तोलों का निर्माण किया था। नैनीताल, खुरपाताल और चाफी का मालवा ताल ही वे तीन ताल थे जिन्हे 'त्रिॠषि सरोवर' होने का गौरव प्राप्त है।

नैनीताल के ताल की कहानी चाहे जो भी हो, इस अंचल के लोग सदैव यहाँ नैना (नन्दा) देवी की पूजा - अर्चना के लिए आते रहते थे। कुमाऊँ की ऐतिहासिक घटनाएँ ऐसा रुप लेती रहीं कि सैकड़ों क्या हजारों वर्षों तक इस ताल की जानकारी बाहर के लोगों को न हो सकी। इसी बीच यह क्षेत्र घने जंगल के रुप में बढ़ता रहा। किसी का भी ध्यान ताल की सुन्दरता पर न जाकर राजनीतिक गतिविधियों से उलढा रहा। यह अंचल छोटे छोटे थोकदारों के अधीन होता रहा। नैनीताल के इस इलाके में भी थोकदार थे, जिनकी इस इलाके में काफी जमीनें और गाँव थे।

सन् १७९० से १८१५ तक का समय गढ़वाल और कुमाऊँ के लिए अत्यन्त कष्टकारी रहा है। इस समय इस अंचल में गोरखाओं का शासन था। गोरखों ने गढ़वाली तथा कुमाऊँनी लोगों पर काफी अत्याचार किए। उसी समय ब्रिटिश साम्राज्य निरन्तर बढ़ रहा था। सन् १८१५ में ब्रिटिश सेना ने बरेली और पीलीभीत की ओर से गोरखा सेना पर आक्रमण किया। गोरखा सेना पराजित हुई। ब्रिटिश शासन सन् १८१५ ई. के बाद इस अंचल में स्थापित हो गया। २७ अप्रैल, १८१५ के अल्मोड़ा (लालमण्डी किले) पर ब्रिटिश झण्डा फहराया गया। अंग्रेज पर्वत - प्रेमी थे। पहाड़ों की ठण्डी जलवायु उनके लिए स्वास्थयवर्धक थी। इसलिए उन्होंने गढ़वाल - कुमाऊँ पर्वतीय अँचलों में सुन्दर - सुन्दर नगर बसाने शुरु किये। अल्मोड़ा, रानीखेत, मसूरी और लैन्सडाउन आदि नगर अंग्रेजों की ही इच्छा पर बनाए हुए नगर हैं।

सन् १८१५ ई. के बाद अंग्रेजों ने पहाड़ों पर अपना कब्जा करना शुरु कर दिया था। थोकदारों की सहायता से ही वे अपना साम्राज्य पहाड़ों पर सुदृढ़ कर रहे थे। नैनीताल इलाके के थोकदार सन् १८३९ ई. में ठाकुर नूरसिंह (नरसिंह) थे। इनकी जमींदारी इस सारे इलाके में फैली हुई थी। अल्मोड़ा उस समय अंग्रेजों की प्रिय सैरगाह थी। फिर भी अंग्रेज नये - नये स्थानों की खोज में इधर - उधर घूम रहे थे।



नए नैनीताल की खोज :

सन् १८३९ ई. में एक अंग्रेज व्यापारी पी. बैरन था। वह रोजा, जिला शाहजहाँपुर में चीनी का व्यापार करता था। इसी पी. बैरन नाम के अंग्रेज को पर्वतीय अंचल में घूमने का अत्यन्त शौक था। केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा करने के बाद यह उत्साही युवक अंग्रेज कुमाऊँ की मखमली धरती की ओर बढ़ता चला गया। एक बार खैरना नाम के स्थान पर यह अंग्रेज युवक अपने मित्र कैप्टन ठेलर के साथ ठहरा हुआ था। प्राकृतिक दृश्यों को देखने का इन्हें बहुत शौक था। उन्होंने एक स्थानीय व्यक्ति से जब 'शेर का डाण्डा' इलाके की जानकारी प्राप्त की तो उन्हें बताया गया कि सामने जो पर्वत हे, उसको ही 'शेर का डाण्डा' कहते हैं और वहीं पर्वत के पीछे एक सुन्दर ताल भी है। बैरन ने उस व्यक्ति से ताल तक पहुँचने का रास्ता पूछा, परन्तु घनघोर जंगल होने के कारण और जंगली पशुओं के डर से वह व्यक्ति तैयार न हुआ। परन्तु, विकट पर्वतारोही बैरन पीछे हटने वाले व्यक्ति नहीं थे। गाँव के कुछ लोगों की सहायता से पी. बैरन ने 'शेर का डाण्डा' (२३६० मी.) को पार कर नैनीताल की झील तक पहुँचने का सफल प्रयास किया। इस क्षेत्र में पहुँचकर और यहाँ की सुन्दरता देखकर पी. बैरन मन्त्रुमुग्ध हो गये। उन्होंने उसी दिन तय कर ड़ाला कि वे अब रोजा, शाहजहाँपुर की गर्मी को छोड़कर नैनीताल की इन आबादियों को ही आबाद करेंगे।

पी. बैरन 'पिलग्रिम' के नाम से अपने यात्रा - विवरण अनेक अखबारों को भेजते रहते थे। बद्रीनाथ, केदारनाथ की यात्रा का वर्णन भी उन्होंने बहुत सुन्दर शब्दों में लिखा था। सन् १८४१ की २४ नवम्बर को, कलकत्ता के 'इंगलिश मैन' नामक अखबार में पहले - पहले नैनीताल के ताल की खोज खबर छपी थी। बाद में आगरा अखबार में भी इस बारे में पूरी जानकारी दी गयी थी। सन् १८४४ में किताब के रुप में इस स्थान का विवरण पहली बार प्रकाश में आया था। बैरन साहब नैनीताल के इस अंचल के सौन्दर्य से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सारे इलाके को खरीदन का निश्चय कर लिया। पी बैरन ने उस लाके के थोकदार से स्वयं बातचीत की कि वे इस सारे इलाके को उन्हें बेच दें।

पहले तो थोकदार नूर सिंह तैयार हो गये थे, परन्तु बाद में उन्होंने इस क्षेत्र को बेचने से मना कर दिया। बैरन इस अंचल से इतने प्रभावित थे कि वह हर कीमत पर नैनीताल के इस सारे इलाके को अपने कब्ज में कर, एक सुन्दर नगर बसाने की योजना बना चुके थे। जब थोकदार नूरसिंह इस इलाके को बेचने से मना करने लगे तो एक दिन बैरन साहब अपनी किश्ती में बिठाकर नूरसिंह को नैनीताल के ताल में घुमाने के लिए ले गये। और बीच ताल में ले जाकर उन्होंने नूरसिंह से कहा कि तुम इस सारे क्षेत्र को बेचने के लिए जितना रू़पया चाहो, ले लो, परन्तु यदि तुमने इस क्षेत्र को बेचने से मना कर दिया तो मैं तुमको इसी ताल में डूबो दूँगा। बैरन साहब खुद अपने विवरण में लिखते हैं कि डूबने के भय से नूरसींह ने स्टाम्प पेपर पर दस्तखत कर दिये और बाद में बैरन की कल्पना का नगर नैनीताल बस गया। सन् १८४२ ई. में सबसे पहले मजिस्ट्रेट बेटल से बैरन ने आग्रह किया था कि उन्हें किसी ठेकेदार से परिचय करा दें ताकि वे इसी वर्ष १२ बंगले नैनीताल में#ं बनवा सकें। सन् १८४२ में बैरन ने सबसे पहले पिरग्रिम नाम के कॉटेज को बनवाया था। बाद में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस सारे क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया। सन् १८४२ ई. के बाद से ही नैनीताल एक ऐसा नगर बना कि सम्पूर्ण देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इसकी सुन्दरता की धाक जम गयी। उत्तर प्रदेश के गवर्नर का ग्रीष्मकालीन निवास नैनीताल मेंं ही हुआ करता था। छः मास के लिए उत्तर प्रदेश के सभी सचिवालय नैनीताल जाते थे।

नैनीताल में अनेक ऐसे स्थान हैं जहाँ जाकर सैलानी अपने - आपको भूल जाते हैं। यहाँ अब लोग ग्रीष्म काल में नहीं आते, बल्कि वर्ष भर आते रहते हैं। सर्दियों में बर्फ के गिरने के दृश्य को देखने हजारों पर्यटक यहाँ पहुँचते रहते हैं। रहने के लिए नैनीताल में किसी भी प्रकार की कमी नहीं है, एक से बढ़कर एक होटल हैं। आधुनिक सुविधाओं की नैनीताल में आज कोई कमी नहीं है। इसलिए सैलानी और पर्यटक यहाँ आना अधिक उपयुक्त समझते हैं।

नैनीताल में अप्रैल से जून और सितम्बर से दिसम्बर तक दो सीजन होते हैं। सम्पूर्ण देश के पूँजीपति, व्यापारी, उद्योगपति, राजा-महाराजा और सैलानी यहाँ आते हैं। इस मौसम में टेनिस, पोलो, हॉकी, फुटबाल, गॉल्फ, मछली मारने और नौका दौड़ाने के खेलों की प्रतियोगिता होती है। इन खेलों के शौकीन देश के विभिन्न नगरों से यहाँ आते हैं। पिकनिक के लिए भी लोगों का ताँता नगा रहता है। इसी मौसम में नाना प्राकर के सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। सितम्बर से दिसम्बर का मौसम भी बहुत सुन्दर रहता है। ऐसे समय में आकाश साफ रहता है। प्रायः इस मोसम में होटलों का किराया भी कम हो जाता है। बहुत से प्रकृति प्रेमी इसी मौसम में नैनीताल आते हैं। जनवरी और फरवरी के दो ऐसे महीने होते हैं जब नैनीताल में बर्फ गिरती है। बहुत से नवविवाहित दम्पतियाँ अपनी 'मधु यामिनी' हेतु नैनीताल आते हैं। तात्पर्य यह है कि यह सुखद और शान्ति का जीवन बिताने का मौसम है।

नैनीताल में घूमने के बाद सैलानी पीक देखना भी नहीं भूलते। आजकल नैनीताल के आकर्षण में रज्जुमार्ग (रोपवे) की सवारी भी विशेष आकर्षण का केन्द्र बन गयी है। सुबह, शाम और दिन में सैलानी नैनीताल के ताल में जहां बोट की सवारी करते हैं, वहाँ घोड़ों पर चढ़कर घुड़सवारी का भी आनन्द लेते हैं। शरद्काल में और ग्रीष्मकाल में यहाँ बड़ी रौनक रहती है। शरदोत्सव के समय पर नौकाचालन, तैराकी, घोड़ो का सवारी और पर्वतारोहम जैसे मनोरंजन और चुनौती भरे सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं।

नैनीताल में बहुत, अच्छे स्कूल भी हैं। योरोपियन मिशनरियों के यहाँ कई स्कूल खुले हैं जिनमें से सेंट जोसेफ कॉलेज, शेरउड कॉलेज, सेन्टमेरी कॉन्वेंट स्कूल और आल सेन्ट स्कूल प्रसिद्ध है। बिरला का बालिका विद्यलय और बिरला पब्लिक स्कूल भी प्रसीद्ध है। नैनीताल में पॉलिटेकनिक है। नैनीताल में कुमाऊँ विश्वविद्यालय भी स्थापित है, जहाँपर हर प्रकार की शिक्षा दी जाती है। कुमाऊँ विश्वविद्यालय में नये - नये विष्य पढ़ाये जाते हैं। जिन्हें पढ़ाने के लिए देख के कोने - कोने से विद्यार्थी यहाँ आते हैं।

यहाँ की सात चोटियों नैनीताल की शोभा बढ़ाने में विशेष, महत्व रखती हैं :

१.) चीनीपीक (नैनापीक)

सात चोटियों में चीनीपीक (नैनापीक) २,६०० मीटर की ऊँचाई वाली पर्वत चोटी है। नैनीताल से लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर पर यह चोटी पड़ती है। इस चोटी से ह्मालय की ऊँची -ऊँची चोटियों के दर्शन होते हैं। यहाँ से नैनीताल के दृश्य भी बड़े भव्य दिखाई देते हैं। इस चोटी पर चार कमरे का लकड़ी का एक केबिन है जिसमें एक रेस्तरा भी है।

२.) किलवरी

२५२८ मीटर की ऊँचाई पर दूसरी पर्वत - चोटी है जिसे किलवरी कहते हैं। यह पिकनिक मनाने का सुन्दर स्थान है। यहाँ पर वन विभाग का एक विश्रामगृह भी है। जिसमें पहुत से प्रकृति प्रेमी रात्रि - निवास करते हैं। इसका आरक्षण डी. एफ. ओ. नैनीताल के द्वारा होता है।

३.) लड़ियाकाँटा

२४८१ मीटर की ऊँचाई पर यह पर्वत श्रेणी है जो नैनीताल से लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ से नैनीताल के ताल की झाँकी अत्यन्त सुन्दर दिखाई देती है।

४ - ५.) देवपाटा और केमल्सबौग

यह दोनों चोटियाँ साथ - साथ हैं। जिनकी ऊँचाई क्रमशः २४३५ मीटर और २३३३ मीटर है। इस चोटी से भी नैनीताल और उसके समीप वाले इलाके के दृश्य अत्यन्त सुन्दर लगते हैं।

६. डेरोथीसीट

वास्तव में यह अयाँरपाटा पहाड़ी है परन्तु एक अंग्रेज केलेट ने अपनी पत्नी डेरोथी, जो हवाई जहाज की यात्रा करती हुई मर गई थी। की याद में इस चोटी पर #ेक कब्र बनाई, उसकी कब्र - 'डारोथीसीट' के नाम - पर इस पर्वत चोटी का नाम पड़ गया। नैनीताल से चार किलोमीटर की दुरी पर २२९० मीटर की ऊँचाई पर यह चोटी है।

७. स्नोव्यू और हनी - बनी

नैनीताल से केवन ढ़ाई किलोमीटर और २२७० मीटर की ऊँचाई पर हवाई पर्वत - चोटी है। 'शेर का डाण्डा' पहाड़ पर यह चोटी स्थित है, जहाँ से हिमालय का भव्य दृश्य साफ - साफ दिखाई देता है। इसी तरह स्नोव्यू से लगी हुई दूसरी चोटी हनी - बनी है, जिसकी ऊँचाई २१७९ मीटर है, यहाँ से भी हिमालय के सुन्दर दृश्य दिखाई देते हैं।



हनुमानगढ़ी :

नैनीताल में हनुमानगढ़ी सैलानी, पर्यटकों और धार्मिक यात्रियों के लिए विशेष, आकर्षण का केन्द्र हैै। यहाँ से पहाड़ की कई चोटियों के और मैदानी क्षेत्रों के सुन्हर दृश्य दिखाई देते हैं। हनुमानगढ़ी के पास ही एक बड़ी वेद्यशाला है। इस वेद्यशाला में नक्षरों का अध्ययन कियी जाता है। राष्ट्र की यह अत्यन्त उपयोगी संस्था है।

नैनीताल की सौन्दर्य - सुषमा अद्वितीय है। नैनीताल नगर भारत के प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है। उत्तर - पूर्व रेलवे स्टेसन काठगौदाम से नैनीताल ३५ कि. मी. की दूरी पर स्थित है। आगरा, लखनऊ और बरेली को काठगोदाम से सीधे रेल जाती है।

हवाई - जहाज का केन्द्र पन्त नगर है। नैनीताल से पन्त नगर की दूरी ६० कि. मीटर है। दिल्ली से यहाँ के लिए हवाई यात्रा होती रहती है।

नैनीताल जिले में कई स्थान ऐसै हैं, जहाँ बसों द्वारा आना - जाना रहता है। हल्द्वानी, काशीपुर, रुद्रपुर, रामनगर, किच्छा और पन्त नगर आदि नैनीताल में ऐसै उभरते हुए नगर हैं, जिनमें बसों के माध्यम से प्रतिदन सम्पर्क बना रहता है।

नैनीताल नगर निरन्तर फैलता ही जा रहा है। आज यह नगर ११ - ७३ वर्ग किलोमीटर में फैला हूआ है। पर्वतारोहण, पदारोहण जैसे आधुनिक आकर्षणों के कारण, यहाँ का फैलाव नित नये ढ़ंग से हो रहा है। 'कुमाऊँ' विश्वविद्यालय के मुख्यालय होने के कारण भी यहाँ नित नयी चहल - पहल होती है। नैनीतान में कई संस्थान हैं। पर्ववतारोहण की संस्था भी यहाँ की एक शान है।

नैनीताल नगर सुन्दर है। परन्तु नैनीताल जिले के अन्तर्गत ही कुछ ऐसे नगर और स्थल हैं जिनकी विशिष्टता नैनीताल से किसी भी प्रकार से कम नहीं है।



काठगोदाम : नैनीताल ते पर्वतीय अंचल का द्वार

काठगोदाम कुमाऊँ का द्वार है। यह छोटा सा नगर पहाड़ के पाद प्रदेश में बसा है। गौला नदी इसके दायें से होकर हल्द्वानी की ओर बढ़ती है। पूर्वोतर रेलवे का यह अन्तिम स्टेशन है। यहाँ से वरेली, लखनऊ तथा आगरा के लिए छोटी लाइन की रेल चलती है। काठगोदाम से नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत और पिथौरागढ़ के लिए के. एम. ओ. यू. की बसें जाती है। कुमाऊँ के सभी अंचलों के लिए यहाँ से बसें जाती हैं।

काठगोदाम से तीन किलोमीटर नैनीताल की ओर बढ़ने पर रानीबाग नामक अत्यन्त रमणीय स्थल है। कहते हैं यहाँ पर मार्कण्डेय ॠषि ने तपस्या की थी।रानीबाग के समीप ही पुष्पभद्रा और गगार्ंचल नामक दो छोटी नदियों का संगम होता है। इस संगम के बाद ही यह नदी 'गौला' के नाम से जानी जाती है। गौला नदी के दाहिने तट पर चित्रेश्वर महादेव का मन्दिर है। यहाँ पर मकर संक्रान्ति के दिन बहुत बड़ा मेला का आयोजन होता है।

'रानीबाग' से पहले इस स्थान का नाम चित्रशिला था। कहते हैं कत्यूरी राजा पृथवीपाल की पत्नी रानी जिया यहाँ चित्रेश्वर महादेव के दर्शन करने आई थी। वह बहुत सुन्दर थी। रुहेला सरदार उसपर आसक्त था। जैसे ही रानी नहाने के लिए गौला नदी में पहुँची, वैसे ही रुहेलों की सेना ने घेरा डाल दिया। रानी जिया शिव भक्त और सती महिला थी। उसने अपने ईष्ट का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गई। रुहेलों ने उन्हें बहुत ढूँढ़ा परन्तु वे कहीं नहीं मिली। कहते हैं, उन्होंने अपने आपको अपने घाघरे में छिपा लिया था। वे उस घाघरे के आकार में#ं ही शिला बन गई थीं। गौला नदी के किनारे आज भी एक ऐसी शिला है, जिसका आकार कुमाऊँनी घाघरे के समान हैं। उस शिला पर रंग-विरंगे पत्थर ऐसे लगते हैं - नानो किसी ने रंगीन घाघरा बिछा दिया हो। वह रंगीन शिला जिया रानी के स्मृति चिन्ह माना जाता है। रानी जिया को यह स्थान बहुत प्यारा था। यहीं उसने अपना बाग लगाया था और यहीं उसने अपने जीवन की आखिरी सांस भी ली थी। वह सदा के लिए चली गई परन्तु उसने अपने गात पर रुहेलों का हाथ नहीं लगन् दिया था। तब से उस रानी की याद में यह स्थान रानीबाग के नाम से विख्यात है।

आज रानीबाग कुमाऊँ का औद्योगिक स्थान भी हो गया है। यहाँ पर घड़ी उद्योग लग चुका है। यह उद्योग हिन्दुस्तान मशीन दूल्स (एच. एम. टी.) का पाँचवा उद्योग है। रानीबाग में सेना (पुलिस) का चेकपोस्ट भी है। यह अत्यन्त रमणीय स्थान है।

रानीबाग से दो किलोमीटर जाने पर एक दोराहा है। दायीं ओर मुड़ने वाली सड़क भीमताल को जाती है। जब तक मोटर - मार्ग नहीं बना था, रानीबाग से भीमताल होकर अल्मोड़ा के लिए यही पैदल रास्ता था। वायीं ओर का राश्ता ज्योलीकोट की ओर मुड़ जाता है। ये दोनों रास्ते भुवाली में जाकर मिल जाते हैं।

रानीबाग से सात किलोमीटर की दूरी पर 'दोगाँव' नामक एक ऐसा स्थान है जहाँ पर सैलानी ठण्डा पानी पसन्द करते हैं। यहाँ पर पहाड़ी फलों का ढेर लगा रहता है। पर्वतीय अंचल की पहली बयार का आनन्द यहीं से मिलना शुरु हो जाता है।

ज्योलीकोटः काठगोदाम से १७.७ किलोमीटर की दूरी पर ज्योलीकोट स्थित है। यहाँ से नैनीताल की दूरी प्रायः १७.७ कि. मी. ही शेष बच जाती है। अर्थात् यह स्थान काठगोदाम और नैनीताल के बीचोंबीच स्थित है। कुमाऊँ के सुन्दर स्थलों में ज्योलीकोट की गणना की जाती है। यह स्थान समुद्र की सतह से १२१९ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ का मौसम गुलाबी मौसम कहलाता है। जो पर्यटक नैनीताल की ठण्डी हवा में नहीं रह पाते, वे ज्योलिकोट में रहकर पर्वतीय जलवायु का आनन्द लेते हैं। ज्योलिकोट में मधुमक्खी पालन केन्द्र है। फलों के लिए तो ज्योलिकोट प्रसिद्ध है ही परन्तु विभिन्न प्रकार के पक्षियों के केन्द्र होने का भी इस स्थान को गौरव प्राप्त है। देश - विदेश के अनेक प्रकृति - प्रेमी यहाँ रहकर मधुमक्खियों और पक्षियों पर शोध कार्य करते हैं। सैलानी, पदारोही और पहाड़ों की ओर जाने वाले लोग यहाँ अवश्य रुकते हैं।

ज्योलिकोट से जैसे ही बस आगे बढ़ती है, वैसे ही एक दोराहा और आ जाता है। बायीं ओर मुड़ने वाला मार्ग नैनीताल जाता है और दायीं ओर का मार्ग भुवाली होकर अल्मोड़ा, मुक्तेश्वर, रानीखेत और कर्ण प्रयाग की तरफ चला जाता है।



भुवाली

ज्योलिकोट से जैसे ही गेठिया पहुँचते हैं तो चीड़़ के घने वनों के दर्शन हो जाते हैं। गेठिया से टी. बी. सेनिटोरियम का अस्पताल है। मुख्य अस्पताल गेठिया से आगे पहाड़ी की ओर चोटी पर स्थित है। सन् १९१२ में भुवाली के टी. बी. सेनिटोरियम कहलाता है। गेठिया सेनिटोरियम इसी अस्पताल की शाखा है। चीड़ के पेड़ों की हवा टी. बी. के रोगियों के लिए लाभदायक बताई जाती है। इसीलिए यह अस्पताल चीड़ के घने वन के मध्य में स्थित किया गया। श्री मति कमला नेहरु का भी इसी अस्पताल में इलाज हुआ था।

भुवाली सेनिटोरियम के फाटक से जैसे ही आगे बढ़ना होता है, वेसे ही मार्ग ढलान की ओर अग्रसर होने लगता है। कुछ देर बाद एक सुन्दर नगरी के दर्शन होते हैं। यह भुवाली है। भुवाली चीड़ और वाँस के वृक्षों के मध्य और पहाड़ों की तलहटी में १६८० मीटर की ऊँचाई में बसा हुआ एक छोटा सा नगर है। भुवाली की जलवायु अत्यन्त स्वास्थ्यवर्द्धक है।

शान्त वातावरण और खुली जगह होने के कारण 'भुवाली' कुमाऊँ की एक शानदार नगरी है। यहाँ पर फलों की एक मण्डी है। यह एक ऐसा केन्द्र - बिन्दु है जहाँ से काठगोदाम हल्द्वानी और नैनीताल, अल्मोड़ा - रानीखेत भीमताल - सातताल और रामगढ़ - मुक्तेश्वर आदि स्थानों को अलग - अलग मोटर मार्ग जाते हैं।

भुवाली में ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं। सीढ़ीनिमा खेत है। सर्फीले आकार की सड़कें हैं। चारों ओर हरियाली ही हरियाली है। घने वाँस - बुरांश के पेड़ हैं। चीड़ वृक्षों का यह तो घर ही है। और पर्वतीय अंचल में मिलने वाले फलों की मण्डी है।

'भुवाली' नगर भले ही छोटा हो परन्तु उसका महत्व बहुत अधिक हैं। भुवाली के नजदीक कई ऐसे ऐतिहासिक स्थल हैं, जिनका अपना महत्व है। यहाँ पर कुमाऊँ के प्रसिद्ध गोल्ड देवता का प्राचीन मन्दिर है, तो यहीं पर घोड़ाखाल नामक एक सैनिक स्कूल भी है। 'शेर का डाण्डा' और 'रेहड़ का डाण्डा' भी भुवानी से ही मिला हुआ है। पर्वतारोहियों को भुवाली आना ही पड़ता है। भीमताल, नौकुचियाताल, मुक्तेश्वर, रामगढ़ अल्मोड़ा और रानीखेत आदि स्थानों में जाने के लिए भी काठगोदाम से आनेवाले पर्यटकों, सैलानियों एवं पहारोहियों के 'भुवाली' की भूमि के दर्शन करने ही पड़ते हैं - अतः 'भुवाली' का महत्व जहाँ भौगोलिक है वहाँ प्राकृतिक सुषमा भी है। इसीलिए इस शान्त और प्रकृति की सुन्दर नगरी को देखने के लिए सैकड़ों - हजारों प्रकृति - प्रेमी प्रतिवर्ष आते रहते हैं।

नैनीताल से भुवाली की दूरी केवल ११ किनोमीटर है। नैनीतैल आये हुए सैलानी भुवाली की ओर अवश्य आते हैं। कुछ पर्यटक कैंची के मन्दिर तक जाते हैं तो कुछ 'गगार्ंचल' पहाड़ की चोटी तक पहुँचते हैं। कुछ पर्यटक 'लली कब्र' या लल्ली की छतरी को देखने जाते हैं। कुछ पदारोही रामगढ़ के फलों के बाग देखने पहुँचते हैं। कुछ जिज्ञासु लोग 'काफल' के मौसम में यहाँ 'काफल' नामक फल खाने पहुँचते हैं। 'भुवाली' १६८० मीटर पर स्थित एक ऐसा नगर है जहाँ मैदानी लोग आढ़ू ; सेब, पूलम (आलूबुखारा) और खुमानी के फलों को खरीदने के लिए दूर - दूर से आते हैं।

'भुवाली' नगर के बस अड्डे से एक मार्ग चढ़ाई पर नैनीताल, काठगोदाम और हल्द्वानी की ओर जाता है। दूसरा मार्ग ढ़लान पर घाटी की ओर कैंची होकर अल्मोड़ा, रानीखेत और कर्णप्रयाग की ओर बढ़ जाता है। तीसरा मार्ग भुवाली के बाजार के बीच में होकर दूसरी ओर के पहाड़ी पर चढ़ने लगता है। यह मार्ग भी अगे चलकर दो भागों में विभाजित हो जाता है। दायीं ओर का मार्ग घोड़ाखाल, भीमताल और नौकुचियाताल की ओर चला जाता है और बायीं ओर को मुड़ने वाला मार्ग रामगढ़ मुक्तेश्वर अंचल की ओर बढ़ जाता है।



भीमताल

भीमताल (१,३७१ मीटर) इस अंचल का बड़ा ताल है। इसकी लम्बाई ४४८ मीटर, चौड़ाई १७५ मीटर गहराई १५ से ५० मीटर तक है। नैनीताल से भी यह बड़ा ताल है। नैनीताल की तरह इसके भी दो कोने हैं जिन्हें तल्ली ताल और मल्ली ताल कहते हैं। यह भी दोनों कोनों सड़कों से जुड़ा हुआ है। नैनीताल से भीमताल की दूरी २२.५ कि. मी. है।

भीमताल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सुन्दर घाटी में ओर खिले हुए अंचल में स्थित है। इस ताल के बीच में एक टापू है, नावों से टापू में पहुँचने का प्रबन्ध है। यह टापू पिकनिक स्थल के रुप में प्रयुक्त होता है। अधिकाँश सैलानी नैनीताल से प्रातछ भीमताल चले जाते हैं। टापू में पहुँचकर मनपसन्द क भोजन करते हैं और खुले ताल में बोटिंग करते हैं। इस टापू में अच्छे स्तर के रेस्तरां हैं। उत्तर प्रदेश के मत्सय विभाग की ओर से मछली के शिकार की भी यहाँ अच्छी सुविधा है।

नैनीताल की खोज होने से पहले भीमताल को ही लोग महत्व देते थे। 'भीमकार' होने के कारण शायद इस ताल को भीमताल कहते हैं। परन्तु कुछ विद्वान इस ताल का सम्बन्ध पाण्डु - पुत्र भीम से जोड़ते हैं। कहते हैं कि पाण्डु - पुत्र भीम ने भूमि को खोदकर यहाँ पर विशाल ताल की उत्पति की थी। वैसे यहाँ पर भीमेशवर महादेव का मन्दिर है। यह प्राचीन मन्दिर है - शायद भीम का ही स्थान हो या भीम की स्मृति में बनाया गया हो। परन्तु आज भी यह मन्दिर भीमेशेवर महादेव के मन्दिर के रुप में जाना और पूजा जाता है।

भीमताल उपयोगी झील भी है। इसके कोनों से दो-तीन छोटी - छोटी नहरें निकाली गयीं हैं, जिनसे खेतों में सिंचाई होती है। एक जलधारा निरन्तर बहकर 'गौला' नदी के जल को शक्ति देती है। कुमाऊँ विकास निगम की ओर से यहाँ पर एक टेलिवीजन का कारखाना खोला गया है। फेसिट एशिया के तरफ से भी टाइपराइटर के निर्माण की एक युनिट खोली गयी है। यहाँ पर पर्यटन विभाग की ओर से ३४ शैैयाओं वाला आवास - गृह बनाया गया है। इसके अलावा भी यहाँ पर रहने - खाने की समुचित व्यवस्था है। खुले आसमान और विस्तृत धरती का सही आनन्द लेने वाले पर्यटक अधिकतर भीमताल में ही रहना पसन्द करते हैं।



नौकुचियाताल

भीमताल से ३ कि.मी. की दूरी पर उत्तर-पूर्व की और नौ कोने वाला 'नौकुचियाताल' समुद्र की सतह से १३१९ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नैनीताल से इस ताल की दूरी २६.२ कि.मी. है।

इस नौ कोने वाले ताल की अपनी विशिष्ट महत्ता है। इसके टेढ़े-मेढ़े नौ कोने हैं। इस अंचल के लोगों का विश्वास है कि यदि कोई व्यक्ति एक ही दृष्टि से इस ताल के नौ कोनों को देख ले तो उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है। परन्तु वास्तविकता यह है कि सात से अधिक कोने एक बार में नहीं देखे जा सकते।

इस ताल की एक और विशेषता यह है कि इसमें विदेशों से आये हुए नाना प्रकार के पक्षी रहते हैं। ताल में कमल के फूल खिले रहते हैं। इस ताल में मछलियों का शिकार बड़े अच्छे ढ़ंग से होता है। २०-२५ पौण्ड तक गी मछलियाँ इस ताल में आसानी से मिल जाती है। मछली के शिकार करने वाले और नौका विहार शौकिनों की यहाँ भीड़ लगी रहती है। इस ताल के पानी का रंग गहरा नीला है। यह भी आकर्षण का एक मुख्य कारण है। पर्यटकों के लिए यहाँ पर खाने और रहने की सुविधा है। धूप और वर्षा से बचने के लिए भी पर्याप्त व्यवस्ता की गयी है।



सात ताल

'कुमाऊँ' अंचल के सभी तालों में 'सातताल' का जो अनोखा और नैसर्गिक सौन्दर्य है, वह किसी दूसरे ताल का नहीं है। इस ताल तक पहुँचने के लिए भीमताल से ही मुख्य मार्ग है। भीमताल से 'सातताल' की दूरी केवल ४ कि.मी. है। नैनीताल से सातताल २१ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। आजकल यहां के लिए एक दूसरा मार्ग माहरा गाँव से भी जाने लगा है। माहरा गाँव से सातताल केवल ७ कि.मी. दूर है।

सातताल घने वाँस वृक्षों की सघन छाया में समुद्रतल से १३७१ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इसमें तीन ताल राम, सीता और लक्ष्मण ताल कहे जाते हैं। इसकी लम्बाई १९ मीटर, चौड़ाई ३१५ मीटर और गहराई १५० मीटप तक आंकी गयी है।

इस ताल की विशेषता यह है कि लगातार सात तालों का सिलसिला इससे जुड़ा हुआ है। इसीलिए इसे 'सातताल' कहते है। नैसर्गिक सुन्दरता के लिए यह ताल जहाँ प्रसिद्ध है वहाँ मानव की कला के लिए भी विख्यात है। यही कारण है कि कुमाऊँ क्षेत्र के सभी तालों में यह ताल सर्वोत्तम है।

इस ताल में नौका-विहार करनेवालों को विशेष सुविधायें प्रदान की गयी है। यह ताल पर्यटन विभाग की ओर से प्रमुख सैलानी क्षेत्र घोषित किया गया है। यहाँ १० शैय्याओं वाला एक आवास गृह बनाया गया है। ताल के प्रत्येक कोने पर बैठने के लिए सुन्दर व्यवस्था कर दी गयी है। सारे ताल के आस-पास नाना प्रकार के पूल, लतायें लगायी गयी हैं। बैठने के अलावा सीढियों और सिन्दर - सुन्दर पुलों का निर्माण कर 'सातताल' को स्वर्ग जैसा ताल बनाया गया है। सचमुच यह ताल सौन्दर्य की दृष्टि से सर्वोपरि है। यहाँ पर नौकुचिया देवी का मन्दिर है।

अमेरिका के डा. स्टेनले को भी यह स्थान बहुत प्रिय लगा। वे यहाँ पर अपनी ओर से एक 'वन विहार'का संचालन कर वन के पशि पक्षियों का संरक्षम करते हैं। उनका यहाँ एक आश्रम है, जहाँ बैठकर वे प्रकृति के विभिन्न अंगों का निरीक्षण, परीक्षण और संरक्षण करते हैं।



नल -दमयन्ति ताल की सैर

सात तालों की गिनती में 'नल दमयन्ति' ताल भी आ जाता है। माहरा गाँव से सात ताल जाने वाले मोटर-मार्ग पर यह ताल स्थित है। जहाँ से महरागाँव - सातताल मोटर - मार्ग शुरु होता है, वहाँ से तीन किलोमीटर बायीं तरफ यह ताल है। इस तीन किलोमीटर बायीं तरफ यह ताल है। इस ताल का आकार पंचकोणी है। इसमें कभी-कभी कटी हुई मछलियों के अंग दिखाई देते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अपने जीवन के कठोरतम दिनों में नल दमयन्ती इस ताल के समीप निवास करते थे। जिन मछलियों को उन्होंने काटकर कढ़ाई में डाला था, वे भी उड़ गयी थीं। कहते हैं, उस ताल में वही कटी हुई मछलियाँ दिखाई देती हैं। इस ताल में मछलियों का शिकार करना मना है।



रामगढ़

भुवाली से भीमताल की ओर कुछ दूर चलने पर बायीं तरफ का रास्ता रामगढ़ की ओर मुड़ जाता है। यह मार्ग सुन्दर है। इस भुवाली - मुक्तेश्वर मोटर-मार्ग कहते हैं। कुछ ही देर में २३०० मीटर की ऊँचाई वाले 'गागर' नामक स्थान पर जब यात्रीगण पहुँचते हैं तो उन्हें हिमालय के दिव्य दर्शन होते हैं। 'गागर' नामक पर्वत क्षेत्र में 'गर्गाचार्य' ने तपस्या की थी, इसीलिए इस स्थान का नाम 'गर्गाचार्य' से अपभ्रंश होकर 'गागर' हो गया। 'गागर' की इस चोटी पर गर्गेश्वर महादेव का एक पुराना मन्दिर है। 'शिवरात्रि' के दिन यहाँ पर शिवभक्तों का एक विशाल मेला लगता है।

'गागर' से मल्ला रामगढ़ केवल ३ कि.मी. की दूरी पर समुद्रतल से १७८९ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नैनीताल से केवल २५ कि.मी. की दूरी पर रामगढ़ के फलों का यह अनोखा क्षेत्र बसा हुआ है। कुमाऊँ क्षेत्र में सबसे अधिक फलों का उत्पादन भुवाली - रामगढ़ के आसपास के क्षेत्रों में होता है। इस क्षेत्र में अनेक प्रकार के फल पाये जाते हैं। बर्फ पड़ने के बाद सबसे पहले ग्रीन स्वीट सेब और सबसे बाद में पकने वाला हरा पिछौला सेब होता है। इसके अलावा इस क्षेत्र में डिलिशियस, गोल्डन किंग, फैनी और जोनाथन जाति के श्रेष्ठ वर्ग के सेब भी होते हैं। आडू यहाँ का सर्वोत्तम फल है। तोतापरी, हिल्सअर्ली और गौला कि का आडू यहाँ बहुत पैदा किया जाता है। इसी तरह खुमानियों की भी मोकपार्क व गौला कि बेहतर ढ़ंग से पैदा की जाती है। पुलम तो यहाँ का विशेष फल हो गया है। ग्रीन गोज जाति के पुलम यहाँ बहुत पैदा किया जाते हैं।

रामगढ़, जहाँ अपने फलों के लिए विख्यात है, वहाँ यह अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए भी प्रसिद्ध है। हिमालय का विराट सौन्दर्य यहां से साफ-साफ दिखाई देता है। रामगढ़ की पर्वत चोटी पर जो बंगला है, उसी में एक बार विश्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर आकर ठहरे थे। उन्होंने यहाँ से जो हिमालय का दृश्य देका तो मुग्ध हो गए और कई दिनों तक हिमालय के दर्शन इृसी स्थान पर बैठकर करते रहे। उनकी याद में बंगला आज भी 'टैगोर टॉप' के नाम से जाना जाता है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु को भी रामगढ़ बहुत पसन्द था। कहते हैं आचार्य नरेन्द्रदेव ने बी अपने 'बौद्ध दर्शन' नामक विख्यात ग्रन्थ को अन्तिम रुप यहीं आकर दिया था। साहित्यकारों को यह स्थान सदैव अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। स्व. महादेवी वर्मा, जो आधुनिक हिन्दी साहित्य की मीरा कहलाती हैं, को तो रामगढ़ भाया कि वे सदैव ग्रीष्म ॠतु में यहीं आकर रहती थीं। उन्होंने अपना एक छोटा सा मकान भी यहाँ बनवा लिया था। आज भी यह भवन रामगढ़-मुक्तेश्वर मोटर मार्ग के बायीं ओर बस स्टेशन के पीछे वाली पहाड़ी पर वृक्षों के बीच देखा जा सकता है। जीवन के अन्तिम दिनों में वे पहाड़ पर नहीं आ सकती थीं। अत: उन्होंने मृत्यु से कुछ पहले इस मकान को बेचा था। परन्तु उनकी आत्मा सदैव इस अंचल में आने के लिए सदैव तत्पर रहती थी। ऐसे ही अनेक ज्ञात और अज्ञात साहित्य - प्रेमी हैं, जिन्हें रामगढ़ प्यारा लगा था और बहुत से ऐसे प्रकृति - प्रेमी हैं जो बिना नाम बताए और बिना अपना परिचय दिए भी इन पहाड़ियों में विचरम करते रहते हैं।



मुक्तेश्वर

रामगढ़ मल्ला से रामगढ़ तल्ला लगभग १० कि.मी. है। रामगढ़ मल्ला से ही मुक्तेश्वर जाने वाली सड़क नीचे घाटी में दिखाई देती है। यह घाटी भी सुन्दर है। नैनीताल से मुक्तेश्वर ५१.५ कि.मी. है।

मुक्तेश्वर कुमाऊँ का बहुत पुराना नगर है। सन् १९०१ ई. में यहाँ पशु-चिकित्सा का एक संस्थान खुला था। यह संस्थान अब काफी बढ़ गया है। कुमाऊँ अंचल में मुक्तेश्वर की घाटी अपने सौन्दर्य के लिए विख्यात है। देश-विदेश के पर्यटक यहाँ गर्मियों में अधिक संख्या में आते हैं। ठण्ड के मौसम में यहाँ बर्फीली हवाएँ चलती हैं। पर्यटकों के लिए यहाँ पर पर्याप्त सुविधा है। देशी-विदेशी पर्यटक भीमताल, नोकुचियाताल, सातताल, रामगढ़ आदि स्थानों को देखने के साथ-साथ मुक्तेश्वर (२२८६ मीटर) के रमणीय अंचल को देखना नहीं भूलते।



नैनीताल से तराइ -भाबर : खुर्पाताल

तराई-भाबर की ओर जैसे ही हम चलते हैं तो हमें कालढूँगी मार्ग पर नैनीताल से ६ कि.मी. की दूरी पर समुद्र की सतह से १६३५ मीटर की ऊँचाई पर खुपंताल मिलता है। इस ताल के तीनों ओर पहाड़ियाँ हैं, इसकी सुन्दरता इसके गहरे रंग के पानी के कारण और भी बढ़ जाती है। इसमें छोटी-छोटी मछलियाँ प्रचुर मात्रा में मिलती है। यदि कोई शौकीन इन मछलियों को पकड़ना चाहे तो अपने रुमाल की मदद से भी पकड़ सकता है।

इस ताल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें पर्वतों के दृश्य बहुत सुन्दर लगते हैं। यहाँ की प्राकृतिक छटा और सीढ़ीनुमा खेतों का सौन्दर्य सैलानियों के मन को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।



काशीपुर

खुर्पीताल से कालढूँगी मार्ग होते हुए काशीपुर को एक सीधा मार्ग चला जाता है। काशीपुर नैनीताल जिले का एक प्रसिद्ध नगर है, और मुरादाबाद व लालकुआँ से रेल द्वारा जुड़ा है। नैनीताल से यहाँ निरन्तर बसें आती रहती हैं। कुमाऊँ के राजाओं का यह एक मुख्य केन्द्र था। तराई - भाबर में जो भी वसूली होती थी उसका सूबेदार काशीपुर में ही रहता था।

चीनी यात्री हृवेनसांग ने भी इस स्थान का वर्णन किया था। उन्होंने इस स्थान का उल्लेख 'गोविशाण' नाम से किया था प्राचीन समय से ही काशीपुर का अपना भौगोलिक, सांस्कृतिक व धार्मिक महत्व रहा है।

कालाढूँगी/हल्द्वानी से काशीपुर मोटर-मार्ग में काशीपुर शहर से लगभग ६ कि.मी. पहले देवी का एक काफी पुराना मन्दिर है यहाँ पर चैत्र मास में चैती मेला विशेष रुप से लगता है, जिसमें दूर-दूर से लोग आते हैं तथा अपनी मनौतियाँ मनाते और माँगते हैं। देवी के दर्शन करने के लिए यहाँ काफी भीड़ उमड़ पड़ती है।

द्रोणा सागर :

चैती मेला स्थल से काशीपुर की ओर २ किलोमीटर आगे नगर से लगभग जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण ताल द्रोण सागर है। पांडवों से इस ताल का सम्बन्ध बताया जाता है कि गुरु द्रोण ने यहीं रहकर अपने शिष्यों को धनुर्विद्या की शिक्षा दी थी। ताल के किनारे एक पक्के टीले पर गुरु द्रोण की एक प्रतिमा है, ऐतिहासिक व धार्मिक दृष्टिकोण से यह विशिष्ट पर्यटन स्थल है।



गिरीताल

काशीपुर शहर से रामनगर की ओर तीन किलोमीटर चलने के बाद दाहिनी ओर एक ताल है, जिसके निकट चामुण्डा का भव्य मन्दिर है। इस ताल को गिरिताल के नाम से जाना जाता है। धार्मिक दृष्टि से इस ताल की विशेष महत्ता है, प्रत्येक पर्व पर यहाँ दूर-दूर से यात्री आते हैं। इस ताल से लगा हुआ शिव मन्दिर तथा संतोषी माता का मन्दिर है जिसकी बहुत मान्यता है। काशीपुर में नागनाथ मन्दिर, मनसा देवी का मन्दिर भी धार्मिक दृष्टि से आए हुए यात्री का दिल मोह लेते हैं।

काशीपुर नगर अब औद्योगिक नगर हो गया है, यहाँ सैकड़ों छोटे-बड़े उद्योग लगे हैं जिससे सारा इलाका समृद्धशाली हो गया है। काशीपुर के इलाके में बड़े-बड़े किसान, जिनके आधुनिक कृषि संयंत्रों से सुसज्जित बड़े-बड़े कृषि फार्म है, खेती की दृष्टि से यह इलाका काफी उपजाऊ है।

पर्यटन की दृष्टि से भी काशीपुर का काफी महत्व है। यहाँ के गिरिताल नामक ताल के किनारे पर्यटन आवास--गृह का निर्माण किया गया है। यहाँ दूर-दूर से देशी-विदेशी पर्यटक आकर रुकते हैं।



नैनीताल के महत्वपूर्ण नगर

कार्बेट नेशनल पार्क

कुमाऊँ मंडल में तीन जिलों का परिवेश है

पिथौरागढ़

पिथौरागढ़ का पुराना नाम सोरघाटी है। सोर शब्द का अर्थ होता है-- सरोबर। यहाँपर माना जाता है कि पहले इस घाटी में सात सरोवर थे। दिन-प्रतिदिन सरोवरों का पानी सूखता चला गया और यहाँपर पठारी भूमि का जन्म हुआ। पठारी भूमी होने के कारण इसका नाम पििथौरा गढ़ पड़ा। पर अधिकांश लोगों का मानना है कि यहाँ राय पिथौरा की राजधानी थी। उन्हीं के नाम से इस जगह का नाम पिथौरागढ़ पड़ा। राय पिथौरा ने नेपाल से कई बार टक्कर ली थी। यही राजा पृथ्वीशाह के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

पिथौरागढ़ अल्मोड़ा जनपद की एक तहसील थी। इसी एक तहसील से २४ फरवरी १९६० को पिथौरागढ़ जिला का जन्म हुआ। तथा इस सीमान्त जिला पिथौरागढ़ को सुचारु रुप से चलाने के लिए चार तहसीलों (पिथौरागढ़ डीडी घाट, धारचूला और मुन्शयारी) का निर्माण १ अप्रैल १९६० को हुआ।

इस जगह की महत्ता दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली गयी। शासन ने प्रशासन को सुदृढ़ करने हेतु १३ मई १९७२ को अल्मोड़ जिले से चप्पावत तहसील को निकालकर पिथौरागढ़ में मिला दिया। चम्पावत तहसील कुमाऊँ की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करनेवाला क्षेत्र है। कत्यूरी एवं चन्द राजाओं का यह काली कुमाऊँ-तम्पावत वाला क्षेत्र विशेष महत्व रखता है। आठवीं शताबादी से अठारहवीं शताब्दी तक चम्पावत कुमाऊँ के राजाओं की राजधानी रहा है।

इस समय पिथौरागढ़ में डीडी हाट, धारचूला, मुनस्यारी, चम्पावत और पिथौरागढ़ नामक पाँच तहसीले हैं। इन पाँच तहसीलों में पिथौरागढ़ में पिथौरागढ़, डीडी हाट, कनालीछीना, धारचूला, गंगोलाहाट, मुनस्यारी, बेरीनाग, मुनाकोट, लोहाघाट, चम्पावत, पाटी, बाराकोट नामक बारह विकासखंड हैं जिनमें ८७ न्यायपंचायते, ८०८ ग्रमसभायें और कुल छोटे-बड़े २३२४ गाँव हैं।

पिथौरागढ़ के धारचूला, डीडी हाट, तम्पावत तहसीलों के बीहड़ इलाकों में 'राजि वन रावत' नामक जनजाती भी निवास करती है। इनके कुल सात गाँव हैं जिनमें केवल ९२ घरें हैं। 'राजि वन रावतों' की जनसंख्या १९८१ की जनगणना कुल ३७१ हैं, जिनमें पुरुषों की संख्या २०५ और महि#लिाओं की संख्या १६६ को गिनती किया गया है।

पिथौरागढ़ में 'भोटिया अर्थात शौका' भी दूसरी अनुसूचित जनजाती है। यह अनुसूचित जिजाति धारचूला और मुनस्यारी तहसील के अन्तर्गत निवास करती है। धारचूला तहसील में शौका अर्थात भोटिया जनजाति दारमा (धौली नदी की उपत्यका) व्यास (काली नदी की उपत्यका) और चौदास में निवास करती है। मुनस्यारु तहसील में शौका क्षेत्र जौहार के उत्तर में, तिब्बत से पश्चिम में चमोली (गढ़वाल) से दक्षिण में और डीडी हाट से पूर्व में पंचमूली की श्रेणियाँ दारमा से निली हुई है। मल्ला जोहार और गोरीफाट के १५ गाँव शौका जनजाति के गाँव हैं। इस क्षेत्र का अन्तिम और सबसे बड़ा गाँव मिलम है, मिलम ग्लेशि यर को नाम देने का श्रेय इसी गाँव को है। गोरी गंगा का उद्गम इसी ग्लेशियर से हुआ है।

पिथौरागढ़ की चौहदी इस प्रकार है -- पूर्व में नेपाल, पश्चिम में अल्मोड़ा, और चमोली (गढ़वाल), दक्षिण में नैनीताल और उत्तर में तिब्बत स्थित है। इस जनपद का कुल क्षेत्रफल ८८,५५९ वर्ग किमी. है।

पिथौरागढ़ सुन्दर - सुन्दर घाटियों का जनपद है। नदी घाटियों का जनपद है। नदी घाटियों में यहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य बिखरा हुआ है। सीढ़ीनुमा खेतों की सुन्दरता पर्यटकों का मन मोह लेती है। यहाँ के पर्वतों की अनोखी अदा सैलानियों को मुग्ध कर देती है। नदियों का कल-कलस्वर प्रकृति प्रेमियों को अलौकिक आनन्द देता है।

पिथौरागढ़ - यह समुद्रतल से १६१५ मीटर की उँचाई पर ६.४७ वर्ग किलोमीटर की परिधि में बसा हुआ है। इस नगर का महत्व चन्द राजाओं के समय से रहा है। यह नगर सुन्दर घाटी के बीच बसा है। कुमाऊँ पर होनेवाले आक्रमणों को पिथौरागढ़ ने सुदृढ़ किले की तरह झेला है। जिस घाटी में पिथौरागढ़ स्थित है, उसकी लम्बाई ८ किमी. और चौड़ाई १५ किमी. है। रमणीय घाटी का मनोहर नगर पिथौरागढ़ सैलानियों का स्वर्ग है।

पिथौरागढ़ पहुँचने के लिए दो मार्ग मुख्य हैं। एक मार्ग टनकपुर से और दूसरा काठगोदाम हल्द्वानी से है। पिथौरागढ़ का हवाई अड्डा पन्तनगर अल्मोड़ा के मार्ग से २४९ किमी. का दूरी पर है। समीप का रेलवे स्टेशन टनकपुर १५१ किमी. की दूरी पर है। काठगोदाम का रेलवे स्टेशन पिथौरागढ़ से २१२ किमी. का दूरी पर है।

पिथौरागढ़ नगर में पर्यटकों के रहने-खाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था है। यहाँ २४ शैयाओं का एक आवासगृह है। सा. नि. विभाग, वन विभाग और जिला परिषद का विश्रामगृह है। इसके अलावा यहाँ आनन्द होटल, धामी होटल, सम्राट होटल, होटल ज्योति, ज्येतिर्मयी होटल, लक्ष्मी होटल, जीत होटल, कार्की होटल, अलंकार होटल, राजा होटल, त्रिशुल होटल आदि कुछ ऐसे होटल हैं जहाँ सैलानियों के लिए हर प्रकार की सुविधाऐं प्रदान करवाई जाती है।

पर्यटकों के लिए 'कुमाऊँ मंडल विकास निगम' की ओर से व्यवस्था की जाती है। शरद् काल में यहाँ एक 'शरद कालीन उत्सव' मनाया जाता है। इस उत्सव मेले में पिथौरागढ़ की सांस्कृतिक झाँकी दिखाई जाती है। सुन्दर-सुन्दर नृत्यों का आयोजन किया जाता है।

पिथौरागढ़ में स्थानीय उद्योग की वस्तुओं का विक्रय भी होता है। राजकीय सीमान्त उद्योग के द्वारा कई वस्तुओं का निर्माण होता है। यहाँ के जूते, ऊन के वस्र और किंरगाल से बनी हुई वस्तुओं की अच्छी मांग है। सैलानी यहाँ से इन वस्तुओं को खरीदकर ले जाते हैं।

पिथौरागढ़ में सिनेमा हॉल के अलावा स्टेडियम औरनेहरु युवा केन्द्र भी है। मनोरंजन के कई साधन हैं। पिकनिक स्थल हैं। यहाँ जर्यटक जाकर प्रकृति का आनन्द लेते हैं।

पिथौरागढ़ में हनुमानगढ़ी का विशेष महत्व है। यह नगर से २ किमी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ नित्यप्रति भक्तों की भीड़ लगी रहती है।

एक किलोमीटर की दूरी पर उलवा देवी का प्रसिद्ध मन्दिर है। लगभग एक किलोमीटर पर राधा-कृष्ण मन्दिर भी दर्शनार्थियों का मुख्य आकर्षण है। इसी तरह एक किलो मीटर पर राय गुफा और एक ही किलोमीटर की दूरी पर भटकोट का महत्वपूर्ण स्थान है।

पिथौरागढ़ सीमान्त जनपद है। इसलिए यहाँ के कुछ क्षेत्रों में जाने हेतु परमिट की आवलश्यकता होती है। पिथौरागढ़ के जिलाधिकारी से परमिट प्राप्त कर लेने के बाद ही सीमान्त क्षेत्रों में प्रवेश किया जा सकता है। पर्यटक परमिट प्राप्त कर ही निषेध क्षेत्रों में प्रवेश कर सकते हैं। चम्पावत तहसील के सभी क्षेत्रों में और पिथौरागढ़ के समीप वाले महत्वपूर्ण स्थलों में परमिट की आवश्यकता नहीं होती।

पिथौरागढ़ जनपद के कुछ महत्वपूर्ण स्थल कुछ इस प्रकार हैं।

१. चण्डाक - पिथौरागढ़ से केवल ७ किलोमीटर दूर समुद्रतल से १८०० मीटर की ऊँचाई पर चण्डाक नामक रमणीय स्थल स्थित है। पर्यटक चण्डाक जाकर पिकनिक करते हैं। यहाँ की प्राकृतिक छटा अत्यन्त आकर्षक है। चण्डाक से सम्पूर्ण घाटी बहुत साफ और आकर्षक दिखाई देती है। पर्यटक सम्पूर्ण घाटी के अद्भुत् सौन्दर्य को देखने हेतु चण्डाक अवश्य आते हैं। आजकल यहाँ मैग्नासाइट के उद्योग लग जाने से इस स्थान का महत्व और भी बढ़ गया है। औद्योगिक नगर के रुप में अब इस स्थान की प्रगति हो रही है।

थल केदार - थल केदार में शिव का मन्दिर है। पिथौरागढ़ से इसकी दूरी ६ कि. मि. है। यह अत्यन्त सुषमापूर्ण स्थान है। शिवरात्री के दिन यहाँ पर एक विशाल मेला लगता है। दूर-दूर के यात्री इस अवसर पर यहाँ आते हैं। पिथौरागढ़ में थल मेला का भी विशेष महत्व है। मेले के अवसर पर यहाँ पर नृत्यों का आयोजन भी होता है। अन्य आकर्षक कार्यक्रम भी सम्पन्न किए जाते हैं।

ध्वज - 'ध्वज' पिथौरागढ़ का ध्वज है। यह अत्यन्त सौन्दर्य वाला स्थल है। यहाँ से हिमालय का दृश्य इतना आकर्षक है कि पर्यटन एवं प्रकृति-प्रेमी केवल यहाँ से हिमालय के अद्भुत सुषमा के दर्शन हेतु दूर-दूर से आते है। हिमालय का हिमरुपी चाँदी का-सा भव्य सुकुट दर्शकों को आपार शान्ति देता है। पिथौरागढ़ धारचूला मोटर मार्ग के १८ वें किलोमीटर पर समुद्रतल से २,१०० मीटर की ऊँचाई पर 'ध्वज' स्थित है। प्रकृति के अत्यन्त लुभावने स्थलों में ध्वज की गिनती की जाती है।

एबट माउंट ं]' - पिथौरागढ़-टनकपुर मोटर मार्ग पर लोहाघाट से पहले एबट माउंट का दर्शनीय स्थल आता है। यह स्थल समुद्रतल से २००१ मीटर ऊँचाई पर स्थित है। लोहाघाट की सीमा में पड़ने वाला यह स्थान कुमाऊँ के अत्यन्त रमणीय स्थलों में गिना जाता है। यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता इतनी आकर्षक है कि कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने यहाँ रहने के लिए सुन्दर-सुन्दर बंगले बनवा लिए हैं। पर्वत चोटीके आस-पास ये सभी बंगले आधुनिक सुविधाओं को लेकर बनाये गये हैं। सैलानी 'एवट मा पर जाकर हिमालय के विभिन्न अंचलों के आकर्षक दृश्य देखते हैं। नीचे घाटी की सुषमा भी यहाँ से साफ दिखाई देती है।

लोहाघाट - पिथौरागढ़ टनकपुर मोटर - मार्ग के ६२ वें किलोमीटर की दूरी पर समुद्रतल से १७०६ मीटर की ऊँचाई पर लोहाघाट नामक नगर स्थित है। इसके पास ही लोहावती नदी बहती है। लोहाघाट का ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व है। लोहाघाट के आस-पास अनेक दर्शनीय स्थल हैं, जहाँ पर्यटक घूमते हुऐ दिखाई देते हैं। पर्यटकों के लिए पर्यटन आवासगृह के अलावा सा. नि. विभाग का विश्राम - गृह और जिला परिषद का डाक बंगला भी उप लब्ध हो जाता है। इसके अलावा यहाँपर कुछ होटल भी हैं जहाँ रहने और खाने का सुन्दर व्यवस्था हो जाती है। लोहाघाट में कॉलेज, बैंक, डाकघर के अलावा एक छोटा सा परन्तु आकर्षक बाजार है।

मायावती स्वामी विवेकानन्द को यह स्थान अति प्रिय लगा। उन्होंने यहाँ पर " अद्वेत आश्रम" की स्थापना की थी। यह आश्रम आजकल मायावती ट्रस्ट के द्वारा संचालित होता है।

मायावती का शान्त और सुखद वातावरण प्रकृति-प्रेमियों के लिए विशेष आकर्षण पैदा करता है। इस स्थान से हिमालय की रजत-रुपहली हिम-मंडित पर्वत श्रृंखला को देखा जा सकता है। गढ़वाल हिमालय से कुंमाऊँ और नेपाल हिमालय की प्रायः सभी ऊँची-ऊँची हिम मंडित-चोटियों के दर्शन मायावती से हो जाते हैं। दर्शक इन्हीं पर्वत-चोटियों की अलौकिक सुषमा को देखने यहाँ निरन्दर आते रहते हैं। १ मई से १५ जुलाई और १५ सितम्बर से १५ नवम्बर के बीच का समय यहाँ की सुन्दरता देखने के लिए उपयुक्त समझा जाता है।

मायावती का पावन स्थल लोहाघाट से केवल ९ किमी. की दूरी पर है। यहाँ पर आश्रम की तरफ से उत्तम आवास व भोजन की व्यवस्था की जाती है। पर्यटक एवं धार्मिक यात्री यहाँ वर्ष भर आते-जाते रहते हैं।

चम्पावत - कुमाऊँ में टम्पावत का ऐतिहासिक महत्व है। अल्मोड़ा आने से पूर्व चंद्रवंश के राजाओं की यह राजधानी थी। एक समय चम्पावत का इतना प्रभाव था कि सम्पूर्ण पर्वतीय अंचल ही नहीं, अपितु मैदानों के कुछ भागों तक इस नगर के राजाओं का आतंक छाया रहाता था।

१४ वीं शताब्दी में चम्पावत नगर स्थापित हुआ था। उसी समय वहाँपर वालेश्वर मंदिर समूह का निर्माण हुआ था। कुमाऊँनी वास्तुकला की चरम परिणति यहीं के मंदिरों में देखी जा सकती है। कुछ वास्तुकारों का मानना है कि यहाँ के चम्पादेवी, रत्नेश्वर और दुर्गा मंदिरों की शैली उत्तर भारत के मंदिरों के अनुरुप है। जबकि यहाँ के नागनाथ मंदिर समूह की वास्तुकला को विशुद्ध कुमाऊँनी वास्तुकला का आदर्श माना गया है।

धरती के विशाल आंगन में चम्पावत का ऐतिहासिक नगर पिथौरागढ़ से ७६ कि. मी. की दूरी पर समुद्रतल से १६१५ मीटर की ऊँचाई पर बसा हुआ है। पिथौरागढ़ से टनकपुर को जानेवाली मोटर सड़क पर इस स्थान का महत्व इस अंचल में सबसे अधिक आंका गया है।

चम्पावत के अंचल से ही कुमाऊँ को नाम मिली है। इसी क्षेत्र को 'कुमूँ' कहते हैं। इसी नगर के पास विष्णु का कूर्मावतार होना बताया जाता है। कूर्मावतार से ही कुमार्ंचल नाम पड़ा, जिसे आज कुमाऊँ कहते हैं।

चम्पावत में पुरानी राजधानी के खण्डहर आज भी देखने को मिलते हैं। यहाँ के पुराने किले के स्थान पर तहसील मुक्यालय है। अन्य भवन भी पुराने किले में बने हैं। यहाँ का पुराना किला ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है।

बालेश्वर मंदिर चम्पावत का विशेष आकर्षण है, तो नागनाथ मंदिर कुमाऊँणी स्थापत्य कला का अनुकरणीय उदाहरण है। इसके अलावा चम्पावत में कई ऐसे आकर्षक स्थल हैं। जिनका प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व है और जिन्हें देखने के लिए देश-विदेश के पर्यटक निरन्तर आते रहते हैं।

चम्पावत में पर्यटकों के लिए पर्यटन विभाग का २४ शैय्याओं का एक सुन्दर आवासंगृह है। इसके अलावा इस नगर में रहने आर खाने की उत्तम व्यवस्था हो जाती है। पिथौरागढ़ #ौर टनकपुर से आनेवाली बसों की सवारियों का चमेपावत एक ऐसा स्टेशन है जहां वे चाय पीते हैं या भोजन करते हैं।

हल्द्वानी-काठगोदाम अल्मोड़ा मोटर मार्ग पर जो महत्व गरम पानी का है-वही महत्व चम्पावत का भी पिथौरागढ़-टनकपुर मोटर-मार्ग पर माना जाता है। 'चम्पावत के मनोरम क्षेत्र को देखने के लिए पर्यटक मुख्यतः टनकपुर की ओर से ही आते हैं। परन्तु कुछ सैलानी नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ होकर भी यहाँ पहुँचते हैं।

देवीधूरा - देवीधूरा पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा का विशिष्ट धार्मिक स्थान है। यहाँ पर बाराही देवी का सुप्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर की मान्यता सम्पूर्ण कुमाऊँ मंडल में है। इस स्थान की जहाँ धार्मिक महत्ता है, वहाँ इसके प्राकृतिक सौन्दर्य की भी विशेष ख्याति है।

प्रतिवर्ष रक्षावंधन के दिन यहाँ पर एक विशेष मेला लगता है। इस मेले में कुमाऊँ के ही नहीं अपितु गढ़वाल, नेपाल और मैदानों के हजारों लोग पहूँचते हैं। 'कुमाऊँ' के लोकगीतों और लोकनृत्यों की सही झलक यहीं दिखाई देती है। नृत्यदल इस मेले में अलग-अलग नाचते रहते हैं। इस मेले में कई खेल भी खेले जाते हैं। एक ऐसा खेल 'बगवाल' भी खेला जाता है जिसमें एक पक्ष के लोग दूसरे पक्ष के लोगों पर पत्थर फेंककर अपनी विजय सुनिश्चित करता है।

देवीधूरा, लोहाघाट से ५८ किमी. की दूरी पर समुद्रतल से २५०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ से अल्मोड़ा को सीधा मार्ग चला गया है। देवीधूरा के मेले में नैनीताल ऐर अल्मोड़ा के दर्शक तथा पर्यटक अल्मोड़ा से लमगड़ा होते हुए देवीधूरा के पावन स्थल तक पहुँचते हैं। वह सुन्दर मोटर मार्ग का रास्ता है।

पूर्णागिरी - पिथौरागढ़ में पूर्णागिरी का जहाँ धार्मिक महत्व है - वहाँ इस स्थल का पर्यटन की दृष्टि से भी विशेष महत्व है। टनकपुर से केवल २६ किलोमीटर की दूरी पर यह भव्य धार्मिक स्थान बसा है। यहाँ पर पूर्णागिरी का पीठ है, इसलिए कुछ लोग इस स्थल को 'पुण्यगिरी' के नाम से पुकारना अदिक पसन्द करते हैं। इस दिव्य स्थान पर पहुँचकर मानव का मन सांसारिक छल-कपटों से हटकर अनायास निर्मल हो जाता है। इस स्थान का यह एक ऐसा चमत्कार है जिसे नास्तिक से नास्तिक मनुष्य भी अनुभव करता है। पुण्यादेवी के भक्तों की तो यहाँ सदैव भीड़ लगी रहती है, परन्तु चैत्रमास के नवरात्रों में तो यहाँ पैर रखने की भी जगह कठिनाई से मिलती है। मनोकामना प्राप्ति हेतु हजारों भक्त यहाँ पहुँचते हैं।

'पुण्यादेवी' क्षेत्र में पर्यटक, सैलानी भी अधिक पहुँचते हैं। टनकपुर से यहाँ पहुँचना सरल होता है।

१. श्री कैलाश नारायण आश्रम - यह आश्रम भारत विख्यात हो चुका है। स्वामी श्री १०८ नारायण स्वामी ने इसकी स्थापना १९३६ में की थी, उन्हीं के नाम से यह आश्रम प्रसिद्ध हो गया है।

चौबासपट्टी के सोसा गाँव से ४२-४२ किमी. पूरब की ओर २७०० मीटर की ऊँचाई पर यह आक्श्रम स्थित है। यह अत्यन्त रमणीय स्थल है, यहाँ पर स्वामी जी ने एक भव्य मंदिर बनवाया है। कई भवन बनवाये हैं। उद्यान और फूलों के बगीचे भी लगवाये। इस स्थान की सुन्दरता इतनी अधिक है कि देश के कोने-कोने के प्रकृति प्रेमी इस आश्रम में रहकर हिमालय के अद्भुत दर्शन करते हैं।

इस आश्रम से कैलाश मानसरोवर जाने के लिए मार्ग है। चीन की सीमा यहाँ से अतिनिकट है। विश्व प्रसिद्ध भूगोलवेता स्वामी प्रणवानन्द इसी आश्रम में रहते हैं और यहीं से वे कई बार कैलास मानसरोवर की यात्रा कर चुके हैं।

२. कुटी - धारचूला तहसील का कुटी आखरी गाँव है, ५,४४५ मीटर की ऊँचाई पर यह गाँव स्थित है। यह स्थान अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के लिए विख्यात है। पिथौरागढ़ की लोककथाओं में इस स्थान को कैलास धाम माना गया है।

यह स्थान किसी शौका सामन्त राजा की राजधानी भी रहा है। यहाँ आज भी खसकोट के खण्डहर हैं, जिससे ज्ञात होता है कि यहाँ पहले किसी न किसी प्रभावशाली राजा का किला रहा होगा। कुटी में एक अद्भुत पत्थर है, जिसके बीच में एक १.५ फीट व्यास का विवर (छेद) है, लोगों का यह मानना है कि जो व्यक्ति इस छेद को पार कर जाए वही धर्मात्मा है। जो पार न कर सके उसे पापी व अधर्मी समझा जाता है। ग्लेशियर के द्वारा निर्मित समतल पठार पर बसा हुआ कुटी गाँव सम्पूर्ण पिथौरागढ़ का आकर्षण क्षेत्र है। इसके चारों ओर हिमाच्छादित पहाड़ दिखाई पड़ता है।

३. ज्योलिकलम - यह एक रमणीक स्थान है, जो कुटी गाँव की सीमा पर स्थित है। शौका लोगों में यह मान्यता है कि यह स्थान कैलास मानसरोवर जैसा है, इस स्थान से हिमालय का दृश्य अत्यन्त आकर्षक दिखाई देता है।

४. लिथलाकोट (तिलथिन) - पिथौरागढ़ की चौंदास पट्टी के आबाद स्थानों में लिथलाकोट सबसे ऊँचे स्थानों पर स्थित है। चौंदास क्षेत्र के इष्टदेव 'स्यंसै' इसी लिथलाकोट की चोटी पर पूजे जाते हैं। इस चोटी के एक ओर मंदिर है। शौका लोगों का मानना है कि उनके पूर्वजों का निवास स्थान यहीं था। लिथलाकोट चोटी के चारों तरफ नीचे ढ़लानों पर चौदास के सारे गाँव बसे हैं।

पहाड़ के पीछे एक प्राचीन राजमहल के खण्डहर आज भी दिखाई देते हैं। यह स्थान अपनी सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के रंग-बिरंगे फूल, मखमली घास और बाँस और देवदार के वृक्ष इतने सुन्दर हैं कि देश-विदेश के सैकड़ों पर्यटक यहाँ की सुन्दरता देखने लिथलाकोट पहुँचते हैं।

५. पंचचूली - पंचचूली पर्वत शिखर दारमा धाटी में स्थित है। पंचचूली पर्वत क्श्रेण की यह विशेषता है कि मुक्य चोटी के चारों ओर चार अन्य पर्वत शिखर हैं। धार्मिक ग्रन्थों में इसे पंचशिरा कहते हैं। कुछ ग्रमीण लोगों की यह मान्यता है कि पाँचों पर्वत शिखर युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव-पाँचों पांडवों के प्रतीक हैं। इस खिखरों की विशेषता यह है कि प्रतिवर्ष देश व विदेश के पर्वतारोही इन शिखरों पर पर्वतारोहण के लिए आते हैं। परन्तु तेज ढ़ाल (सीधी ढ़ाल) के कारण कोई भी पर्वतारोही दल पंचचोली पर आज तक नहीं चढ़ पाया है।

शौका लोगों का यह पर्वत बहुत चहेता है, इसलिए इनके लोकगीतों में इसे दरमान्योली के नाम से पुकारा जाता है। पंचचूली के पाँच प्रदेश में एक ग्लेशियर भी है।

६. मनेला ग्लेशियर से बना हुआ आकर्षक और मनोहरी मैदान है, यहीं पर काली और कुटी नदियों का संगम होता है। यह अत्यन्त प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों में माना जाता है। मैदान के किनारे पहाड़ की जड़ पर व्यास मुनी का मंदिर है। इस मंदिर के ऊपर एक महादेव का प्रसिद्ध मंदिर है। व्यास घाटी व्यास मुनि के नाम से जानी जाती है। सम्पूर्ण शौका जनजाति महर्षि वेदव्यास को अपना पूर्वज मानती है। इस क्षेत्र में वेदव्यास की पूजा होती है।

मनेला में महर्षि व्यास जी के मंदिर के समक्ष रक्षावंधन के पुनीत पर्व पर दो दिन का मेला लगता है। मेला शुरु होने से पहले रात्रि - जागरण, कीर्तन, भजन, खेलकूद और लोकनृत्य गीतों का आयोजन शुरु हो जाता है। पूर्णमासी के दिन मुख्य मेला लगता है, दूर-दूर के लोग मेले में आते हैं, व्यास क्षेत्र का यह तो प्रमुख मेला है, जिसमें प्रत्येक व्यास भक्त उपस्थित होना अपना सौभाग्य समझता है।

व्यास के मंदिर से कुछ ही दूरी पर कैलाशपति शिव का मंदिर है, यहाँ भी निरन्तर पूजा होती है। शिवपूजा शिवरात्री पर विशेष ढ़ंग से की जाती है।

यहाँ की एक विशेषता और है, व्यासमंदिर के १५० गज की दूरी पर पश्चिम-उत्तर की दिशा में एक छीटी सी गुफा है, जिसमें ९ साँप एक ही साथ रहते हैं। ये सफेद, काले और सफेद-काले मिश्रित रंग के हैं। ये धूप सेंकने के लिए एक साथ बाहर आते हैं, यहाँ के लोग इन्हें दूध पिलाकर शिव के गण के रुप में पूजते हैं। ये कभी किसी का नुकसान नहीं करते बल्कि मनौती करनेवाले लोगों को बाहर निकलकर आशीर्वाद देते हैं। यहाँ सामूहिक पूजा होती है। इस मेले में व्यासपट्टी के आकर्षण लोकनृत्यों का प्रदर्शन होता है, जिन नृत्यों तो देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं।

७. जौलजीवी - काली और गोरी नदी के संगम पर शौकाओं के शीतकालीन आवास-क्षेत्र के दक्षिणी भाग में स्थित है। यहाँ पर समस्त कुमाऊँ का सबसे बड़ा औद्योगिक मेला लगता है। ज्वाहर जयन्ती (१४ नवम्बर) से १५ दिन तक इस मेले का आयोजन होता है। यह पिथौरागढ़ , से ६८ कि. मि. की दूरी पर स्थित है।

इस मेले में शौका, कुमाऊँनी, नेपाली और मैदानी क्षेत्र के हजारों व्यापारी आते हैं और अपने-अपने ढ़ंग का व्यापार करते हैं।

तिब्बत व्यापार - संधि के समाप्त होने से पहले जौलजीवी का मेला शौका व्यापारियों द्वारा आयोजित ऊन तथा ऊनी माल के लिए विख्यात था। नेपाल से अब भी इस मेले में घी, शहद और घोड़े लाये जाते हैं।

इस मेले में जहाँ औद्योगिक सामाग्री की प्रदर्शनी लगती है - वहाँ विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम भी सम्पन्न किये जाते हैं। नेपाली, शौका एवं कुमाऊँनी नृत्यगीतों के लिए यह मेला विशेष रुप से प्रसिद्ध है।

८. छियालेख - यह स्थल अपनी बनावट और प्राकृतिक सुन्दरता के लिए विख्यात है। इसके चारों ओर भारत तता नेपाल की हिमाच्छादित पर्वत - श्रेणियाँ हैं। यह स्थल ऊँची पर्वत - श्रेणी के ऊपर एक समतल पठार है। मैदान में नाना प्रकार के फूल खिले रहते हैं। शंकु आकार के सुन्दर-सुन्दर वृक्षों का छाया में उस स्थल की सुन्दरता और बढ़ जाती है। वर्म देवता और छेतो माटी देवताओं के मन्दिर यहीं स्थित है। इन्हीं देवताओं के कारण 'छियालेख' का धार्मिक महत्व भी है। इस क्षेत्र में एक किम्वदन्ति प्रसिद्ध है कि एक बार राम, लक्ष्मण और सीता इस स्थल पर पहुँचे थे। लोगों का यह भी मानना है कि कल्पवृक्ष यहीं था। युगों युगों से चले आये संस्कारों के कारण इस स्थल की मान्यता सम्पूर्ण क्षेत्र में है।

शौका क्षेत्र अत्यन्त सुन्दर है। यहाँ अनेक ऐसे स्थल हैं जिनका धार्मिक, प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक महत्व है। ऐसे अनेक दर्शनीय स्थलों को देशने दूर-दूर से लोग आते हैं। इस अंचल के 'छिपला केदार', 'बंबास्यांसै', 'गबला स्यांसै', 'ज्योलिंका कैलास मेला' और 'वेदव्यास मेला' अपने ढ़ंग के ऐसे मेले हैं जिनका अपना ऐतिहासिक महत्व है। इन मेलों में शौका लोग बड़े उत्साह से जाते है। जौलजीवी का मेला उद्योग तथा मनोरंजन का मेला है, जबकि उपरोक्त अन्य मेले पूर्णतः धार्मिक मेले हैं।

पिथौलागढ़ के शौका क्षेत्र की अपनी विशिष्टता है। यह क्षेत्र युगों - युगों से व्यापार का केन्द्र रहा है। इस क्षेत्र के शौका व्यापारी पश्चिमी तिब्बत के दुश्यर गरलोक, ज्ञानिमा, दर्चयन और ताकलाकोट आदि स्थानों पर जाकर व्यापार करते थे।

आज शौका क्षेत्र के कई उदीयमान युवक देश की हर सेवा में आगे आ रहे हैं। शौका क्षेत्र में दंतो चकहिया नामक शक्तिशाली शासक को याद किया जाता है। सुनपति शौका तो कुमाऊँ के लोकगीतों के नायक ही हैं। सुनपति शौका की ही पुत्री राजुला 'मालूसाही' की प्रसिद्ध नायिका थी। इसी तरह कन्ती - फौंदार की यशस्वी गाथा भी इस क्षेत्र की एक विशेषता है। दानवीर जसुली बूढ़ी शोक्याणी का नाम भी पूरे शौका में प्रसिद्ध है। इसी तरह पं. गोबरया, श्री परमल सिंह धाकी, श्री मोती सिंह मेम्बर, श्री त्यिका नगन्याल, श्री जबाहर सिंह व्यास आदि का नाम इस क्षेत्र में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इन लोगों ने अपने क्षेत्र और क्षेत्र की संस्कृति के उत्थान के लिए बहुत प्रशंसनीय कार्य किए हैं।

पिथौलागढ़ जनपद अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। आज यह जनपद औद्योगिक प्रकृति में भी आगे बढ़ रहा है। पुरातत्व की दृष्टि से तो यह सम्पूर्ण जनपद अत्यन्त महत्वपूर्ण है। नयीं - नयीं खोजें हो रही हैं। कई स्थानों के उत्खनन से नया इतिहास सामने आ रहा है।

कुमाऊँ का दर्शन तभी पूरा हो सकेगा जब कुमाऊँ के इस अंचल के सभी क्षेत्रों का और सभी स्थानों का अवलोकन किया जाए। कुमाऊँ की मखमली धरती में अनेक महत्वपूर्ण स्थल हैं। प्रकृति के रंगीले - सँजीले क्षेत्र यहाँ यत्र -तत्र मिल जाते हैं।






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लोक कला

उत्तरांचल

लोक कला

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पर्वतीय क्षेत्र में महिलाओं द्वारा विविध अवसरों पर नित्य प्रति के साज-सामान से विभन्न अलंकरणों को गैरिक पष्टभूमि पर इस प्रकार से उकेरा जाता है कि अच्छा भला चित्रकार भी शरमा जाए। रंग संयोजन की इस शैली में वे आकृति परक चित्रांकन आते हैं जिनसे कभी कभी तो मात्र प्राकृतिक रंगों जैसे गेरु और पीसे हुए चावल के घोल से अंकन कर भव्य आकतियों को जन्म दिया जाता है। टोपण की यह समृद्ध लोक परंपरा योजना समूचे भारत में अलग-अलग मानों से जानी जाती है। उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, सौराष्ट्र में साथिया, साहाराष्ट्र व दक्षिण भारत में रंगोली व कोलम, बंगाल में अल्पना नाम से यह कला जानी जाती है जिसमें स्थानीयता के प्रभाव से अलंकरणों में विभेद होता रहता है। कुमा में प्रत्येक व्रत-त्योहार, उपनयन संस्कार, पूजा नामकरण, विवाह, छठी आदि शुभ पर्वों? पर भूमि अलंकरण बनाने की परंपरा है। इसलिए स्थानीय लोक जगत ने अपने पास की सरलता से उप्लब्ध होने वाली वस्तुओं का प्रयोग खाली स्थानों व आंगन को संवारने में किया। ताकि इन स्थानों का अलंकरण कर घर-द्वारों को सुरुचिपूर्ण और मंगलमय बनाया जा सके।

टोपण का अर्थ है - लीपना। वैसे लीप शब्द का अर्थ है अंगुलियों से रंग लगाना, न कि तूलिका से रंग भरना। टोपम की इस विधा में गेरु की पृष्ठभूमि पर पिये चावल के धोल से अथवा कमेछ मिट्टी से अलंकरण किये जाते हैं। लगातार अभ्यास से दक्ष अंगुलियाँ टेपण की योजना को मनोहारी रुप देने लगती है। टेपण का सृजन अंदर से बाहर की ओर होता है। केन्द्र की विषयवसुतु का अंकन सर्वप्रथम तथा उसके बाद धीरे-धीरे परिधि की ओर विस्तार होता है। केन्द्र में दो चित्र अंकित किया जाता है वह प्रायः निश्चित अवयवों और परंपराओं के आधार पर यंत्र के सादृश्य अनूकृति से परिपूरित होता है जिसमें आधा ज्यामितीय हो सकते हैं। मध्य में कलाकार को कल्पना की छूट नहीं है जबकि बाह्म भाग कल्पना की निश्चित छूट से हो सकता है, इस भाग में बैलबूटे, डिज़ाइन बनाई जाती है। विषय परंपरा के अनुसार पूर्व निर्धारित हो सकते हैं।

रुप विन्यास और आलेखनों को अलंकृत करने की जगह को आधार मानकर टेपण को क्रमशः भूमि टेपण, चौकी टेपण, दीवार टेपण तथा वस्तु परक टेपण आदि में वर्गीकृत कर सकते हैं। भूमि टेपण के अन्तर्गत भूमि पर विशेष चौकियों व यंत्रों का निर्माण होता है। चौकियों पर अलंकृत होने वाले टेपण वे हैं जिनके लिए भूमि की अपेक्षा लकड़ी की चौकियों पर अवसर विशेष के लिए टेपण बनाई जाती हैं। दीवार पर बनने वाले अलंकारिक टेपणों को दीवार टेपण नाम दिया गया है। जबकि सूप कांसे की थाली आदि पर बनने वाले टेपण वस्तु पूरक माने जाते हैं।

इस कला में सूर्य, चन्द्र, स्वास्तिक, नाग, शंख, धंटा, विभिन्न प्रकार के पुष्प, तरह-तरह की बेलें व अन्य ज्यामितीय आकृतियां बनाई जाती हैं। बहुतायत से प्रयुक्त होनो वाले देव प्रतीक बुरी आत्माओं से रक्षा व लोक कल्याण का भाव अपने में समेंटे हुए हैं। छोटी मोटी लोक कथाएं व धार्मिक विश्वास इन अकृतियों के प्रेणा स्रोत रहे हैं। साथिया व स्वास्तिक अथवा खोड़िया सभी लोक कलाओं का अनिवार्य अंग है। इसके बिना कोई भी अलंकरण पूरा नहीं होता। किसी भी शुभ कार्य में इस चिन्ह को गणेश की तरह सर्वप्रथम स्थापित किया जाता है। इसकी चार भुजाएं चार वर्ण, चार आश्रम, चार दिशाएं, व चार युग अथवा वेदों को इंगित करती हैं। यह शक्ति, प्रगति, प्रेरणा व शोभा की भी सूचक हैं।

भूमि टेपणों में शिव की पीठ, सकस्वती चौकी, महालक्ष्मी की चौकी, धूलिअध्र्य, चामुण्डा चौकी के अलावा देहली टेपण भी सम्मिलित हैं।

देहली द्वार में लगली, टपुकिया, मोतिचूर, सुनजई कोठा व आड़ा आदि बनाने की परम्परा है जिसको अनेक प्रतीकों बेलों व कमलदीपों से अलंकृत किया गया है। टेपण के अन्तगर्त बनाया जाने वाला धूलिअध्र्य, नमूना विवाह में गोधूली के समय मुख्य रुप से बनाया जाता है। इसका निर्माण वृत की अवस्था से होता है जो बेलों, लताओं द्वारा अलंकृत होकर घट सदृश बन जाता है। मध्य में हवनकुँड, अरिणी - समिधा, मांगलिक तिन्ह व लक्ष्मी के पदों का अंकन होता है। यहाँ घट की आकृति पर व वधू के कल्याण को दर्शाती है। यह ॠषि विवाह का सूचक है। कुमाऊँ में वर बधू को विष्णु व लक्ष्मी के प्रतीक के रुप में मान दिया जाता है। इस टेपण को विष्णु का स्थान मानकर इस पर वर को आसन दिया जाता है। कुछ लोग धूलीअध्र्य को वृक्ष सदृश मानके हैं।

दीपावली के अवसर पर बनने वाली लक्ष्मी की पदावलियां घर, आंगन, देहली, फर्श, सीढियौं, द्वारों व कक्षों में अंकित होती हैं। सहिलाएं मुट्ठी को बन्द करके घर के बाहर से अन्दर की ओर जाते हुए लक्ष्मी के पैर गेरु के धरातल पर बिस्वार से बनाती हैं। मुट्ठी के छाप से बनी आकृति के ऊपर अंगूठा बनाया जाता है। दो पैरों के बीच रिक्त स्थान पर गोल चिन्ह बनाया जाता है जो पुष्प आकृति का भी हो सकता है। यह चिन्ह लक्ष्मी के आसन कमल अथवा धन का प्रतीक होता है। पूजा कक्ष में भी लक्ष्मी के चौकी बनाये जाने का प्रचलन है। चौकी पर धन ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी को गन्ने के टुकड़ों से निर्मित कर स्थापित किया जाता है तथा इसको स्थानीय वेशभूषा से सज्जित कर आभूषणों से आभूषित किया जाता है।

हरिबोधनी एकादशी या बूढ़ी दीपावली को भुईंया बनायी जाती है जिसे अहितकारी दैत्य आत्मा माना जाता है। यह दरिद्रता का प्रताक माना है। इसको आंगन में अंकित कर महिलाएँ आलेखित सूप में, ब्रह्ममूहूर्त में, गन्ना, दाड़िम, अखरोट पर पुष्प डालकर उसके पास आकर उसे भगाती हैं। सूप में रखी गई सामग्री को भुईंया के स्थान पर रखकर सूप में अंकित लक्ष्मी - नारायण के साथ घर में प्रवेश करती हैं। भुईंया का स्वरुप कीट की भांति दर्शाया जाता है।

सरस्वती चौकी फर्श पर निर्मित होती है। इस, अलंकरम में केन्दिर को बिन्दु रखकर उसके चारों ओर डिजायनें बनायी जाती है। यह वृत के रुप में होती है। मुख्य दैविक शक्तियों को त्रिभुज के द्वारा व्यक्त किया जाता है। यह त्रिभुज सोलह कमलदल से आवृत होता है। इसके चारों ओर बिन्दु या वृत बनाये जाते हैं। कभी - कभी सरस्वती को पंच भुजाकार तारे से भी चित्रित केया जाता है अथवा जनेऊ धारण करवाया जाता है।

शिव की पीठ नामक टेपण को शिव पूजन केलिए पूजा कक्ष अथवा पार्थिव पूजन के समय अंकित किया जाता है। मध्य में धन (+) चिन्ह यास्वास्तिक बनता है जो जीवन के चार मार्गों को प्रतीकात्मक प्रदर्शन है। यह चारों मार्ग केन्द्र सेजुड़ते हैं। इसे कई क्षैत्ज व लम्बवत् समानान्तर रेखाओं के संयोजन से बनाया जाता हैं ; मध्य में जिह्मवा बनायी जाती है।

दीवारों पर अंकित होनेवोले टेपणों में थापे व टुपुक प्रमुख हैं। टुपुक रसोईघर में दो #्लग-#्लग तरह से बनाये जाते हैं। नाता नामक अल्पना कुमाऊँनी रसाईकी प्रमुख आभूषण है। शाह परिवारों में मेष संक्रान्ति के अवसर पर यह रसोई घरकी दीवार पर बनायी जाती है। परिवार के सदस्यों को स्नेह के बन्धन में बाँघने की अभिव्यक्ति के रुप में इस डिजायन का चित्रण किया जाता है। अनाज की बालियों को समृद्धि के प्रतीक को रुप में एक दूसरे से जोड़कर अंगुलियों के रुप में मानवरुपी रेखाचित्र बनाये जाते हैं बायीं ओर की आकृतियाँ लक्ष्मी तथा दाहिनि ओेर की विष्णु की प्रतीक समझी जाती हैं। इनके दाहिनी ओर ब्रह्मा, विष्णु और महेश बनाये जाते हैं। मंच का अंकन कर सीढ़ी और बालियां दर्शायी जाती हैं। इसके मध्य में त्रिभुज बनाकर बिन्दु बनाया जाता है। यह डिजायन बौद्ध कला के 'चैत्य' से साम्य रखता है।

लक्ष्मी पूजन के लिए कांसे की थाली पर अथवा कागज के पट्टे पर लक्ष्मी अल्पना व थापे अंकित किये जाते हैं। थापे में चारों दिशाओं की ओर चार हाथी धन-धान्य व समृद्धि के प्रतीक के रुप में लक्ष्मी पर पवित्र जल अर्पित करते हुए दर्शाये जाते हैं। हाथी मेघों के भी प्रतीक समझे जाते हैं। पृथवी की समृद्धि वर्षा पर निर्भर है। कमलासन उर्वरता एवं विकास को लिए हुए है और लक्ष्मी धन, यश, वैभव व समृद्धि और मंगल की देवी है।

इस अल्पना में लक्ष्मी को चतुर्भुजी निरुपित किया जाता है। लक्ष्मी के नीचे खोरिया या स्वास्तिक आसन या पादपीठ के प्रतीक के रुप में बनाया जाता है। चौकी के दोनों ओर लक्ष्मी के पदचिन्ह तथा निचले कोनों पर जल कुँड निर्मित करने का विधान है जिनसे लेकर हाथी देवी पर जल चढ़ाते हैं, दर्शाये जाने की परम्परा है। लक्ष्मी के दोनों ओर युगल हाथी फूलमाला डालने को तैयार बनाये जाते हैं। इस अल्पना के किनारे को लक्ष्मी के पदचिन्हों से सुसज्जित बनाया जाता है।

कुमाऊँ क्षेत्र के टेपण तंत्र से भी अन्तर्सम्बन्ध रखते प्रतीत होते हैं। वैसे लगभग सभी आकृतियाँ प्रतीकात्मत हैं। सुष्टि की उत्पति शिव और शक्ति के संयोजन से हुई है। इन दोनों शक्तियों को त्रिभुज के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। ये दोनों त्रोभुज आपस में एक दूसरे का काटते हुए अधोमुखी तथा उध्वर्मखी बनाये जाते हैं। त्रिभुज के तीनों बिन्दु महालक्ष्मी, महाकाली व महासरस्वती के प्रतीक भी माने जाते हैं। तंत्र में बीज या विन्दु को सृष्टि का आधार माना जाता है। बिन्दु से महाबिन्दु की उत्पति शिव तथा शक्ति के मिलन से हुई है। शक्ति के साकार रुप में ही शिव का निराकार रुप अपना आकार ग्रहण करता है, शिव शक्ति का संयोजन स्थल मिश्र बिन्दु कहलाता है। यही त्रिकोण को तीन स्थल पर संयुक्त रुप देता है। अधोमुखी त्रिभुज जल और उध्वर्मुखी अग्नि का प्रतीक समझे जाते हैं। त्रिभुजों के बीच का स्थान जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाता है। त्रिभुजों को घेरने बाले बृत ब्रह्मांड के प्रतीक हैं। इनको कमल दल से अलंकृत करने का विधान है। कमलदल जीवन की पवित्रता को आभासित करते हैं। बिन्दु का प्रयोग सभी आलेखनों से बहुतायत से होता है; यह स्थायित्व का प्रतीक है कुछ विद्वान इसे अनंत, ब्रहमांड या आकाश का प्रतीक मानते हैं। वर्ग पृथ्वी को प्रदर्शित करता है। डिजायनों में प्रयुक्त वृत संसार की गतिक अवस्था का भाव लिए है। यह नाद को व्ययक्त करता है। टेपण में प्रयुक्त मछली सौभाग्य का, गाज बुद्धि का तथा अनंत का प्रतीक है। टेपण में पूजन की सामग्री को भी प्रमुखता से सअथान मिला है। शुभ की कामना से दीपक शंख, घंटी, का अंकन स्वतंत्रता से कलाकारों द्वारा किया जाता है।

अल्पना का सृजन अन्दर से बाहर की ओर होता है। केन्द्र की विषयवस्तु का अंकन सर्वप्रथम तथा उसके बाद धीरे - धीरे परिधि की ओर विस्तार होता है। केन्द्र में बनाया जानेवाला चित्र निश्चित अवयवों और परम्पराओं के आधार पर तंत्र अभिप्राय के सदृश आकृति लिए निरुपित किया जाता है, जिसमें ज्यामितीय आधार हो सकते हैं।

केन्द्र में बननेवाले वृत के अन्दर मुख्य संस्कार सम्बन्धी चित्र तथा समकोण पर काटती दो ॠजु रेखायें बनायी जाती हैं। ये रेखायें वैदिक काल में हवन प्रज्वलित करने के लिए प्रयुक्त अरणी के प्रतीक हैं। इस वृताकार चित्र पर पूजा की सामग्री तथा पुरोहित के लिए उपहार रखें जाते हैं।

कुमाऊँनी लोक कला में निश्चित लोक तत्व निहित हैं। कमलदल सबसे अधिक प्रयुक्त होनोवाला पुष्प है। जबकि वृक्ष जैसी आकृतियाँ बहुतायत से प्रयुक्त हुई हैं। धूली अध्र्य को कुछ लोग घट तथा कुछ लोग शाखाओं सहित वृक्ष मानते हैं। सम्भवतः वृक्ष ने फलने - फूलने की प्रवृति और सम्पन्नता से सम्बन्ध रखने के कारण स्थान पाया होगा। सितारों को सप्तर्षि के रुप में जनेऊ चौकी में आलेखित कोया जाता है। डॉ जगदीश गुप्त द्वारा वर्गीकरणहो सकता है। आकारीय स्वरुप के आधार पर कुछ टेपण रेखा प्रधान जैसे गनेलिया व सांगलिया बेल, आकृति प्रधान जैसे थापे व प ज्यामिती प्रधान जैसे बरबूँद, क्षेपाक्षण प्रधान जैसे हाथ के थापे, कथा प्रधआन जैसी दुर्गाष्टमी, बटसावित्री पट्ट बहाकर बनाये जानेवाले जैसे वसुन्धरा, टपकाकर बनाये जाने वाले जैसे टुपुक, रंगाकन करनेवाले जैसे लंगावली का पिछौड़ा, सीमाबद्ध जैसे हिमांचल, स्वतंत्र शैली जैसे घुइयां लक्ष्मी - यंत्र आदि।

आधुनिकता की होड़ में जबकि विश्वास निरन्तर जड़ हेते जा रहे हैं, महिलाओं द्वारा संजायी गयी इसकला के प्रतिमान कम से कम पर्वतीय क्षेत्र में अभी भी सेरक्षित रखने कीप्रवृति में ह्रास नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि प्राकृतिक रंगों के स्थान पर सिंथेटिक रंगों का प्रचलन बढ़ रहा है। इसका परिणाम है कि जो सुघड़ता और लोच गेरुई पृष्टभूमि पर बिस्वार अथवा कमेठ से आभासित होती है उसके स्वरुप में लोकतत्व का ह्रास न आने लगा है।



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स्याल्दे - बिखौती का मेला

उत्तरांचल > मेले

स्याल्दे - बिखौती का मेला

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अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट कस्बे में सम्पन्न होने वाला स्याल्दे बिखौती का प्रसिद्ध मेला प्रतिवर्ष वैशाख माह में सम्पन्न होता है । हिन्दू नव संवत्सर की शुरुआत ही के साथ इस मेले की भी शुरुआत होती है जो चैत्र मास की अन्तिम तिथि से शुरु होता है । यह मेला द्वाराहाट से आठ कि.मी. दूर प्रसिद्ध शिव मंदिर विभाण्डेश्वर में लगता है । मेला दो भागों में लगता है । पहला चैत्र मास की अन्तिम तिथि को विभाण्डेश्वर मंदिर में तथा दूसरा वैशाख माह की पहली तिथि को द्वाराहाट बाजार में । मेले की तैयारियाँ गाँव-गाँव में एक महीने पहले से शुरु हो जाती हैं । चैत्र की फूलदेई संक्रान्ति से मेले के लिए वातावरण तैयार होना शुरु होता है । गाँव के प्रधान के घर में झोड़ों का गायन प्रारम्भ हो जाता है ।

चैत्र मास की अन्तिम रात्रि को विभाण्डेश्वर में इस क्षेत्र के तीन धड़ों या आलों के लोग एकत्र होते हैं । विभिन्न गाँवों के लोग अपने-अपने ध्वज सहित इनमें रास्ते में मिलते जाते हैं । मार्ग परम्परागत रुप से निश्चित है । घुप्प अंधेरी रात में ऊँची-ऊँची पर्वतमालाओं से मशालों के सहारे स्थानीय नर्तकों की टोलियाँ बढ़ती आती है इस मेले में भाग लेने । स्नान करने के बाद पहले से निर्धारित स्थान पर नर्तकों की टोलियाँ इस मेले को सजीव करने के लिए जुट जाती है ।

विषुवत् संक्रान्ति ही बिखौती नाम से जानी जाती है । इस दिन स्नान का विशेष महत्व है । मान्यता है कि जो उत्तरायणी पर नहीं नहा सकते, कुम्भ स्नान के लिए नहीं जा सकते उनके लिए इस दिन स्नान करने से विषों का प्रकोप नहीं रहता । अल्मोड़ा जनपद के पाली पछाऊँ क्षेत्र का यह एक प्रसिद्ध मेला है, इस क्षेत्र के लोग मेले में विशेष रुप से भाग लेते हैं ।

इस मेले की परम्परा कितनी पुरानी है इसका निश्चित पता नहीं है । बताया जाता है कि शीतला देवी के मंदिर में प्राचीन समय से ही ग्रामवासी आते थे तथा देवी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद अपने-अपने गाँवों को लौट जाया करते थे । लेकिन एक बार किसी कारण दो दलों में खूनी युद्ध हो गया । हारे हुए दल के सरदार का सिर खड्ग से काट कर जिस स्थान पर गाड़ा गया वहाँ एक पत्थर रखकर स्मृति चिन्ह बना दिया गया । इसी पत्थर को ओड़ा कहा जाता है । यह पत्थर द्वारहाट चौक में रखा आज भी देखा जा सकता है । अब यह परम्परा बन गयी है कि इस ओड़े पर चोट मार कर ही आगे बढ़ा जा सकता है । इस परम्परा को 'ओड़ा भेटना' कहा जाता है । पहले कभी यह मेला इतना विशाल था के अपने अपने दलों के चिन्ह लिए ग्रामवासियों को ओड़ा भेंटने के लिए दिन-दिन भर इन्तजार करना पड़ता था । सभी दल ढोल-नगाड़े और निषाण से सज्जित होकर आते थे । तुरही की हुँकार और ढोल पर चोट के साथ हर्षोंल्लास से ही टोलियाँ ओड़ा भेंटने की र अदा करती थीं । लेकिन बाद में इसमें थोड़ा सुधारकर आल, गरख और नौज्यूला जैसे तीन भागों में सभी गाँवों को अलग-अलग विभाजित कर दिया गया । इन दलों के मेले में पहुँचने के क्रम और समय भी पूर्व निर्धारित होते हैं । स्याल्दे बिखौती के दिन इन धड़ों की सजधज अलग ही होती है । हर दल अपने-अपने परम्परागत तरीके से आता है और रस्मों को पूरा करता है । आल नामक घड़े में तल्ली-मल्ली मिरई, विजयपुर, पिनौली, तल्ली मल्लू किराली के कुल छ: गाँ है । इनका मुखिया मिरई गाँव का थौकदार हुआ करता है । गरख नामक घड़े में सलना, बसेरा, असगौली, सिमलगाँव, बेदूली, पैठानी, कोटिला, गवाड़ तथा बूँगा आदि लगभग चालीस गाँव सम्मिलित हैं । इनका मुखिया सलना गाँव का थोकदार हुआ करता है । नौज्यूला नामक तीसरा घड़ छतीना, बिदरपुर, बमनपुरु, सलालखोला, कौंला, इड़ा, बिठौली, कांडे, किरौलफाट आदि गाँव हैं । इनका मुखिया द्वाराघट का होता है । मेले का पहला दिन बाट्पुजे - मार्ग की पूजा या नानस्याल्दे कहा जाता है । बाट्पुजे का काम प्रतिवर्ष नौज्यूला वाले ही करते हैं । वे ही देवी को निमंत्रण भी देते हैं ।

ओड़ा भेंटने का काम उपराह्म में शुरु होता है । गरख-नौज्यूला दल पुराने बाजार में से होकर आता है । जबकि आल वाला दल पुराने बाजार के बीच की एक तंग गली से होता हुआ मेले के वांछित स्थान पर पहुँचता है । लेकिन इस मेले का पारम्परिक रुप अभी भी मौजूद है । लोक नृत्य और लोक संगीत से यह मेला अभी भी सजा संवरा है । मेले में भगनौले जैसे लोकगीत भी अजब समां बाँध देते हैं । बाजार में ओड़ा भेंटने की र को देखने और स्थानीय नृत्य को देखने अब पर्यटक भी दूर-दूर से आने लगे हैं । इसके बाद ही मेले का समापन होता है ।

कभी यह मेला व्यापार की दृष्टि से भी समृद्ध था । परन्तु पहाड़ में सड़कों का जाल बिछने से व्यापारिक स्वरुप समाप्त प्राय: है । मेले में जलेबी का रसास्वादन करना भी एक परम्परा जैसी बन गयी है । मेले के दिन द्वाराहाट बाजार जलेबी से भरा रहता है ।

इस मेले की प्रमुख विशेषता है कि पहाड़ के अन्य मेलों की तरह इस मेले से सांस्कृतिक तत्व गायब नहीं होने लगे हैं । पारम्परिक मूल्यों का निरन्तर ह्रास के बावजूद यह मेला आज भी किसी तरह से अपनी गरिमा बनाये हुए है ।




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नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा

नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा


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नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा

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समूचे पर्वतीय क्षेत्र में हिमालय की पुत्री नंदा का बड़ा सम्मान है । उत्तराखंड में भी नंदादेवी के अनेकानेक मंदिर हैं । यहाँ की अनेक नदियाँ, पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर नंदा के नाम पर है । नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी, नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियाँ, नदियाँ तथा स्थल नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं । नंदा के सम्मान में कुमाऊँ और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं । भारत के सर्वोच्य शिखरों में भी नंदादेवी की शिखर श्रंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊँ और गढ़वाल वासियों के लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है । इस पर्वत की वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं । शायद ही किसी पहाड़ से किसी देश के वासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से इस क्षेत्र के लोगों का है ।

कुमाऊँ मंड़ल के अतिरिक्त भी नंदादेवी समूचे गढ़वाल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं । नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रुपों में एक बताया गया है । भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है । नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है । भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है । शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं ।

नंदा के इस शक्ति रुप की पूजा गढ़वाल में करुली, कसोली, नरोना, हिंडोली, तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, नौटी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है । गढ़वाल में राज जात यात्रा का आयोजन भी नंदा के सम्मान में होता है ।

कुमाऊँ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पौथी, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा के मंदिर हैं ।अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है ।

अल्मोड़ा में नंदादेवी के मेले का इतिहास यद्यपि अधिक ज्ञात नहीं है तथापि माना जाता है कि राजा बाज बहादुर चंद (सन् १६३८-७८) ही नंदा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे । इस विग्रह को वर्तमान में कचहरी स्थित मल्ला महल में स्थापित किया गया । बाद में कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नंदा की प्रतिमा को वर्तमान से दीप चंदेश्वर मंदिर में स्थापित करवाया था ।

अल्मोड़ा शहर सोलहवीं शती के छटे दशक के आसपास चंद राजाओं की राजधानी के रुप में विकसित किया गया था । यह मेला चंद वंश की राज परम्पराओं से सम्बन्ध रखता है तथा लोक जगत के विविध पक्षों से जुड़ने में भी हिस्सेदारी करता है ।

पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं । पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है । यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं । नंदा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नंदादेवी के सद्वश बनाया जाता है । स्कंद पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नंदा पर्वत के शीर्ष पर नंदादेवी का वास है । कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नंदादेवी प्रतिमाओं का निर्माण कहीं न कहीं तंत्र जैसी जटिल प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है । भगवती नंदा की पूजा तारा शक्ति के रुप में षोडशोपचार, पूजन, यज्ञ और बलिदान से की जाती है । सम्भवत: यह मातृ-शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है जिसकी कृपा से राजा बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ । षष्ठी के दिन गोधूली बेला में केले के पोड़ों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है ।

षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत, पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है । धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं । जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है । जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं । कुछ विद्धान मानते हैं कि युगल नन्दा प्रतिमायें नील सरस्वती एवं अनिरुद्ध सरस्वती की हैं । पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्मवान 'महिषासुर मर्दिनी' के रुप में किया जाता है । सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है । इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है । उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है । प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है । मध्य रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा व तत्सम्बन्धी पूजा सम्पन्न होती है ।

मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है । इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं । दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं । अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं । मेले के अन्तिम दिन परम्परागत पूजन के बाद भैंसे की भी बलि दी जाती है । अन्त में डोला उठता है जिसमें दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं । नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं । अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है ।

मेले के अवसर पर कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक 'जगरिये' मंदिर में आकर नंदा की गाथा का गायन करते हैं । मेला तीन दिन या अधिक भी चलता है । इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियाँ नंदा देवी मंदिर प्राँगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं । झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं । कहा जाता है कि कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नंदादेवी मेला देखना जरुरी है । मेले का एक अन्य आकर्षण परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले गायक हैं, जिन्हें बैरिये कहते हैं । वे काफी सँख्या में इस मेले में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं । अब मेले में सरकारी स्टॉल भी लगने लगे हैं ।





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कुमाऊँ की संस्कृति यहाँ के मेलों में समाहित है । रंगीले कुमाऊँ के मेलों में ही यहाँ का सांस्कृतिक स्वरुप निखरता है । धर्म, संस्कृति और कला के व्यापक सामंजस्य के कारण इस अंचल में मनाये जाने वाले उत्सवों का स्वरुप बेहद कलात्मक होता है । छोटे-बड़े सभी पर्वों?, आयोजनों और मेलों पर शिल्प की किसी न किसी विद्या का दर्शन अवश्य होता है । कुमाऊँनी भाषा में मेलों को कौतिक कहा जाता है । कुछ मेले देवताओं के सम्मान में आयोजित होते हैं तो कुछ व्यापारिक दृष्टि से अपना महत्व रखते हुए भी धार्मिक पक्ष को पुष्ट अवश्य करते है । पूरे अंचल में स्थान-स्थान पर पचास से अधिक मेले आयोजित होते हैं जिनमें यहाँ का लोक जीवन, लोक नृत्य, गीत एवं परम्पराओं की भागीदारी सुनिश्चित होती है । साथ ही यह धारणा भी पुष्टि होती है कि अन्य भागों में मेलों, उत्सवों का ताना बाना भले ही टूटा हो, यह अंचल तो आम जन की भागीदारी से मनाये जा रहे मेलों से निरन्तर समद्ध हो रहा है ।

मेला चारे जिस स्थान पर भी आयोजित हो रहा हो, उसका परिवेश कैसा भी हो, उसका परिवेश कैसा भी हो, अवसर ऐतिहासिक हो, सांस्कृतिक हो, धार्मिक हो या फिर अन्य कोई उल्लास से चहकते ग्रामीणों को आज भी अपनी संस्कृति, अपने लोग, अपना रंग, अपनी उमंग, अपना परिवार इन्हीं मेलों में वापस मिलते हैं । सुदूर अंचलों में तो बरसों का बिछोह लिये लोग मिलन का अवसर मेलों में ही तलाशते हैं ।

कुमाऊँ मंडल के तीनों जिलों में सम्पन्न होने वाले कुछ प्रसिद्ध मेले इस प्रकार हैं -

नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा

नंदादेवी मेला-नैनीताल

कोट की माई का मेला

स्याल्दे - बिखौती का मेला

उत्तरायणी मेला - बागेश्वर

दशहरा महोत्सव - अल्मोड़ा

बगवाल : देवीधुरा मेला

पूर्णागिरी मेला

थल मेला

जौलजीवी मेला - जनपद पिथौरगढ़

मोष्टामाणू का मेला - जनपद पिथौरागढ़

रामेश्वर का मेला - जनपद पिथौरागढ़

गबलादेव का मेला - जनपद पिथौरागढ़

चैती मेला - काशीपुर

कुमाऊँ के कुछ अन्य प्रसिद्ध मेले
हरेला मेला
कालसन का मेला
जियारानी का मेला




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फलों के कारोबार

उत्तरांचल

फलों के कारोबार

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फल यहाँ पर बहुत होते हैं। फलों के यहाँ पर अनेक बगीचे भी हैं। सेब सबसे बढिया जलना के होते थे। यह मशहूर बगीचा जनरल हीलर साहब का था, अब नैनीताल के सेठ लाला शिवलाल परमसाह का है। नाना प्रकार की चीजें यहाँ होती हैं। नारंगियाँ, सोर व गंगोली बहुत प्राचीन काल से होती आई है। अन्यत्र भी होती हैं। पहाड़ी नारंगियाँ बहुत अच्छी होती है, यद्यपि नागपुर व सिलहट के संतरों के मुकाबले में ये घटिया प्रतीत होने लगी है। यहाँ पर नारंगी की खेती को ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है। नींबू यहाँ का बहुत अच्छा व बड़ा होता है।

तराई-भावर में आम, कटहल, पपीता, केला आदि के बड़े-बड़े बाग हैं। अस्कोट में केले व आम अच्छे होते हैं। आम वाली पछाऊँ में भी खूब होता है।










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फलों के कारोबार

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फल यहाँ पर बहुत होते हैं। फलों के यहाँ पर अनेक बगीचे भी हैं। सेब सबसे बढिया जलना के होते थे। यह मशहूर बगीचा जनरल हीलर साहब का था, अब नैनीताल के सेठ लाला शिवलाल परमसाह का है। नाना प्रकार की चीजें यहाँ होती हैं। नारंगियाँ, सोर व गंगोली बहुत प्राचीन काल से होती आई है। अन्यत्र भी होती हैं। पहाड़ी नारंगियाँ बहुत अच्छी होती है, यद्यपि नागपुर व सिलहट के संतरों के मुकाबले में ये घटिया प्रतीत होने लगी है। यहाँ पर नारंगी की खेती को ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है। नींबू यहाँ का बहुत अच्छा व बड़ा होता है।

तराई-भावर में आम, कटहल, पपीता, केला आदि के बड़े-बड़े बाग हैं। अस्कोट में केले व आम अच्छे होते हैं। आम वाली पछाऊँ में भी खूब होता है।








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पर्वतीय गाँव

उत्तरांचल

पर्वतीय गाँव

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कूर्माचल में घर ज्यादातर पत्थर के बने होते हैं। छत में भी पत्थर या पटाल लगे होते हैं, ताकि पानी बह जाये। पानी ज्यादा होने से यहाँ घास के घर नहीं रह सकते। छप्पर पर्वतों में पहुत कम हैं। तराई भावर में ज्यादा हैं। अब पहाड़ में पत्थरों के बदले छत में टीन लगाने लगे हैं। पर्वतीय गाँव दूर से देखने में बहुत सुन्दर दिखाई देते हैं।

गाँववाले घर को कुड़ कहते हैं। नीचे के खंड को गोठ और उसके बरांडे को 'गोठमाल' कहते हैं। गोठ में अक्सर गायें रहती हैं। किसी-किसी के गौशाले अलग होते हैं। ऊपर का हिस्सा 'मझेला' कहलाता है। उसका बरांडा यदि खुला हो, तो उसे 'छाजा' यदि बंद हो, तो 'चाख' कहते हैं। सदर दरवाजा खोली के नाम से पुकारा जाता है। कमरे को खंड। आँगन को 'पटाँगन' भी कहते हैं, क्योंकि वह पत्थरों से पटाया जाता है। घर के पिछले भाग को! 'कराड़ी' कहते हैं। रास्ते को 'गौन, ग्वेट या बाटो' कहते हैं। बहुत से मकान जो साथ-साथ होते हैं, उन्हें 'बाखली' कहते हैं। छत के ऊपर घास के 'लूटे' या कद्द रखे रहते हैं।






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कुमाऊँ का विस्तार व क्षेत्रफल

कुमाऊँ का विस्तार व क्षेत्रफल

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कुमाऊँ या कूर्माचल मुख्यत: तीन जिलों में विभाजित है।


१. अल्मोड़ा
२. नैनीताल
३. पिथौरागढ़


भारतवर्ष के धुर उत्तर में स्थित हिमाच्छादित पर्वतमालाओं, सघन वनों और दक्षिण में तराई-भावर से आवेष्टित २८०४'३ से ३००.४९' उत्तरी अक्षांस और ७८०.४४ से ८१०.४ पूर्वी देशान्तर के बीच अवस्थित भू-भाग 'कुमाऊँ' कहलाता है। सांस्कृतिक वैभव, प्राकृतिक सौंदर्य और सम्पदा से श्री सम्पन्न कुमाऊँ अंचल की एक विशिष्ट क्षेत्रीय पहचान है।

यहाँ के आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा, प्रथा-परम्परा, रीति-रिवाज, धर्म-विश्वास, गीत-नृत्य, भाषा बोली सबका एक विशिष्ट स्थानीय रंग है।

औद्योगिक वैज्ञानिकता के जड़-विकास से कई अर्थों में यह भू-भाग अछूता है। अपनी विशिष्ट सामाजिक संरचना में बद्ध यहाँ की लोक परम्परा मैदानी क्षेत्रों से पर्याप्त भिन्न है। लोक साहित्य की यहाँ समृद्ध वाचिक परम्परा विद्यमान है, जो पीढी-दर-पीढ़ी आज भी जीवन्त है।

वनों के अन्धाधुन्ध कटान से यहाँ आज पर्यावरण-सन्तुलन गड़बड़ा गया है। कई दुर्लभ वनस्पतियाँ और जीव-जन्तु आज विलुप्त हो गये हैं या नामशेष रह गये हैं। कुमाऊँ क्षेत्र में अभी भी जैव सम्पत्ति का अक्षय भंडार है जिसका मुख्य कारण इस क्षेत्र के निवासियों का पशु पक्षियों एवं अन्य जानवरों के प्रति लगाव तथा उनके संरक्षण के प्रति जागरुकता ही है, जैसे धिनौड़ी (चड़ि), आदि पक्षियों के लिए घरों की छत के नीचे (सामान्यत: बन्धारी के नीचे) तिकोनी जगह छोड़ देना, जिनमें यह पक्षी स्वछन्द, उन्मुक्त एवं स्वतन्त्र जीवन व्यतीत कर सकें, धार्मिक स्थानों के आसप-पास विचरण कर रहे जानवरों को मारना अशुभ समझना तथा जानवरों को मारने के फलस्वरुप पाप लगने का व अनिष्ट होने का डर आदि। इसी मान्यता के अनुरुप ही बाघ, साँप, बन्दर आदि जानवरों को न मारना, सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव व परम्परागत विश्वास ही इस क्षेत्र में वन प्राणियों के संरक्षण के प्रमुख कारण है।

इस क्षेत्र की परम्पराओं में उपलब्ध जैविकी का नृतात्विक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इन विभिन्न जैव पदार्थों से यहाँ के भिन्न-भिन्न लोक विश्वास भी जुड़े हैं। नीचे दिए गए जीवों से सम्बन्धित धारणाये, पारम्परिक मान्यतायें, आदि का विवेचन भी किया है।



(Mollusca ) मौल्स्का


१. कहुआ हाड़/कछवा हाड़ (कौड़/सीपी)

ये समुद्र के किनारे मिलते हैं। कुमाऊँनी लोग इन्हें बच्चों के गले में बाँधते हैं। लोक विश्वास है कि इनको बाँधने से बच्चों पर प्रेत बाधा का असर नहीं होता है।



ओलाईगोकीटा (Oligochaeta ) वर्ग


१. गिदौल /गदयूल (केंचुवा)

यह कुमाऊँ में सर्वत्र पाया जाता है। नम भूमि, खाद आदि स्थान इसका विशेष आवास है। कुमाऊँ में पहले प्रसवावस्था के दिनों में इन्हें पकाकर जच्चा को इसका सूप पिलाया जाता था। विश्वास किया जाता था कि इसके सूप से जच्चा में दूध की वृद्वि होती है। अब यह परम्परा समाप्त हो चुकी है (स्थानीय मान्यता)

मछली मारने वाले वंशी के काँटे में इसे फँसाकर चारे के रुप में भी इसका प्रयोग करते हैं।



अरैक्निडा (Arachnida ) वर्ग


१. बिच्छि (बिच्छू)

बिच्छु को तेल में पकाने के बाद उस तेल का खुजली में (विशेषतया गरदन वाले भाग में ) उपयोग किया जाता है। इस तेल का प्रयोग कान के दर्द में भी किया जाता है।



क्रस्टोशिया (Crustacea ) वर्ग


गँज्याड/ग्याँज/केकडा

यह ताल-तलैयों, नौलों व नदियों के किनारे में रहता है। लोग इसे पकड़कर मछली की भाँति खाते हैं। इसका सूप बड़ा स्वादिष्ट माना जाता है।

केकड़े की हड्डी की भस्क कई रोगों में दवा के रुप में दी जाती है।



कीट (Insecta ) वर्ग


१. कुरमुल/कुरमुऊ (कुरमुला)

कुरमुले की छाल को सुखाकर पानी के साथ पीसकर देने से बच्चों के पेंट की
जोंक खत्म हो जाता है।

२. किरमुल/किरमई/चींटी

चींटियों के बाँबियों से बाहर निकलने पर या अपने अण्डों को एक स्थान से दूसरेपर ले जाने की दशा में वर्षा की सम्भावना रहती है।

३. ग्वालि/ग्वाइ

किसी व्यक्ति के शरीर पर ग्वालि कीट के बैठने पर यह माना जाता है कि उसके लिए नए कपड़े बनेंगे। ग्वालि कीट सिर के जुँए के खा जाती है।

४. झिमौड़

लोक विश्वास है कि झिमौड़ के काटने से बुखार नहीं आता है। झिमौड़ के छत्ते को साँप की केंचुल, उड़द, राई और गाय के गोबर के साथ अभिमन्त्रित कर दूध न देने वाली गाय भैंस के थनों और मुँह के चारों और घुमाकर चौराहे में डाल देने पर गाय-भैंस दूध देने लगते हैं।

५. माख/मक्खी

घरेलु मक्खी को गुड़ एवं लाइकेन (पत्थर का दाद) के साथ मींचकर दाद पर लेप करने से दाद ठीक हो जाता है।

६. मौन/मून (मधुमक्खी)

शहद और घी को बराबर मात्रा में मिलाने से विष बन जाता है (स्थानीय मान्यता)। मधुमक्खी को बच्चे (द्रद्वेद्रठ्ठे) खाये जाते हैं। मधुमक्खी का आस-पास मँडराना शुभ माना जाता है।

७. पास फेल किड़

इस कीड़े को हाथ में रखकर बच्चे अपने पास-फेल होने का अनुमान लगाते हैं। यदि यह पास कहने पर उड़ता है तो पास तथा फेल कहने पर उड़ता है तो फेल होने की पूर्व सम्भावना होती है।

८. सुरमाई/चिमौली

यह हरे रंग का उड़ने वाला छोटा कीट है जो लकड़ी के घरों में छत की बल्लियों आदि में मिट्टी की बाँबी बनाता है। घर के अन्दर इसका बाँबी बनाना शुभ माना जाता है।



काँण्ड्रिक्थीज (Chondrichthyes) वर्ग (pisces)


१. माछ (मछली)

कुमाऊँ की नदियों में कई प्रकार की मछलियाँ पाई जाती है। इनमें 'अस्याव' मछली अधिक पसन्द की जाती है। लोक मान्यता है कि मछली के सिर वाले भाग को खाने से आँख की रोशनी तेज होती है।

इन्हें पकड़ने के लिए अल (बिच्छू घास की तरह का पौधा) से बनी जाली का प्रयोग करते थे परन्तु वर्तमान में मछली पकड़ने की जाली में नाइलौन का तागा प्रयोग करते हैं। काँटे (बंशी) से भी मछली पकड़ी जाती है। कुछ स्थानीय लोग तालाबों, नदियों में खीना, रामबाँस और लाल मिट्टी के मिले द्रव का प्रयोग ब्लीचिंग पाउडर की तरह करके मछलियाँ पकड़ते हैं।



सरीसृप (Reptilia ) वर्ग


१. ग्वाड़/ग्वाँ (गोट)

गोह को तेल में पकाकर उस तेल से मालिश करने पर बात रोग ठीक हो जाता है।

२. स्याँप (साँप)

साँपों की लड़ाई देखना अशुभ समझा जाता है। साँप की केंचुल दरवाजे के ऊपर रखने से मकान को न नहीं लगती और बच्चों को भूत प्रेत का डर नहीं लगता। साँप रास्ता काटे तो कार्य में बाधा आती है। बड़े साँप, नाग आदि शिव का अवतार माने जाते हैं। कुछ साँप मणि युक्त या पाँव वाले होते हैं। भाग्यवान लोग ही इन्हे देख पाते हैं। साँप की मणि मिलने पर व्यक्ति धनधान्य से पूर्ण हो जाता है। जीवित साँप की पूँछ सात बार माथे पर रगड़ने से सिरदर्द नहीं होता और न बुखार आता है। साँप की केंचुल की राख को सरसों के तेल में मिलाकर अंजन का लेप करने से आँखों के अधिकांश रोग ठीक हो जाते हैं।



पक्षी (Aves) वर्ग


१. कबूतर

वायु प्रसूत या लकवे की बीमारी में कबूतर का माँस खिलाया जाता है जिससे रोगी ठीक होता है।

२. काँव/काउ (कौवा)

कौवे का कड़क कर बोलना अशुभ होता है। कौवे का सिर पर पीटना अशुभ माना जाता है। प्रात: काल यदि आंगन में कौवा तीन बार काँव-काँव करे तो मेहमान के आगमन की पूर्व सूचना होती है। मकर संक्रान्ति के दिन कौवे का पूजन होता हे तथा तरह-तरह के पकवान, विशेषत: घुघुत (चार के अंक के आकार के आटे के घुघुत बनाकर व घी में तलकर) बनाकर कौवे को खिलाये जाते हैं। इस दिन कौवे का जूठा घुघुत यदि गाय भैंस को खिलाया जाता है तो मान्यता है कि उनकी बछियायें ही होंगी।

३. कुकुड़ (मुर्गी)

आम तौर पर मुर्गी का माँस खाया जाता है। मुर्गी के अण्डे को उबालकर छील लिया जाता है। फिर उसे रात भर नमक से ढक कर रखा जाता है। प्रात: उठते ही यह अण्डा सर्वप्रथम यदि पीलिया के रोगी को खिलाया जाए तो पीलिया ठीक हो
जाता है।

४. गौंताइ/गौताइ/गौंतार

यह चिड़िया घरों के अन्दर या बरामदे की छत पर मिट्टी का घोंसला बनाती है। इसका घोंसला बनाना शुभ माना जाता है। घोंसला टूटने की स्थिति में लोग सहारा देकर इसे बचाये रखते हैं। इन पक्षियों का झुण्ड बनाकर मँडराना वर्षा का सूचक होता है।

५. घिनौड़/पन चड़ि/गीण/चड़ि (गौरैया)

बच्चों की नाभि में सूजन आने की दशा में गौरेया की बीट लगाने से आराम रहता है। मम्स (Mumps ) पर गौरैया का बीट लगाने से वे ठीक हो जाते हैं। पहाड़ में घरों की छत के नीचे गौरैया के घोंसले के लिए लकड़ी में छेद (पिंजड़े) छोड़े जाते हैं।

६. घुघुत (फाख्ता)

इसका माँस वात के रोगी को दिया जाता है। वायु प्रसूत से पीड़ित महिला को घुघुत का माँस खिलाते हैं।

७. चील

जमीन से उड़ती चील की छाया वाली मिट्टी पकाने पर मनोकामना पूर्ण होती है।

८. टिट्याँ (टिटहरी)

इसके अण्डे की जर्दी (yolk ) को बार-बार सिर पर लगाने से सन्निपात (Typhoid ) ज्वर ठीक होता है। स्थानीय वैद्य इसके अण्डे को गाय या भैंस के ताजे गोबर में बन्द कर रखते हैं जिससे अण्डा फूटता नहीं और वर्षों सुरक्षित रहता है।

९. तीतर

तीतर का माँस खाने से वात रोग ठीक हो जाता है। तीतर या किसी भी पक्षी का सिर नहीं खाया जाता है। इससे कुमाऊँनी में एक कहावत जुड़ी है - 'तीतर जतुक चतुर'।

१०. बाज/बूट्यों

आसमान में उड़ता बाज यदि स्थिर हो जाए तो वर्षा होने की सम्भावना होती है। थिरकते बाज को निशाना साध कर मारने से कई लाभ होते है, ऐसी मान्यता है।

११. मल्या (खंजन)

वात रोगी को मल्या का माँस देते हैं। वायु प्रसूत में भी इसका माँस उपयुक्त माना जाता हैं।

१२ मोर

यह कुमाऊँ के तराई भावर क्षेत्र में मिलते हैं। इसका पंख पवित्र व शुभ माना जाता है। उसका पंखों का प्रयोग ओझा लोग झाड़ फूँक में करते हैं। जले-कटे स्थान पर हाथ के बदले मोर-पंख से दवा लगाई जाती हैं। कान में मोर के पंजे को घिसकर डालने से कान का बहना बंद हो जाता है। मोर के पंख की डण्डी (rachis ) नाक-कान के छिद्रों में भी डाली जाती है क्योंकि यह माना जाता है कि इसको डालने से नाक-कान (छिद्र के पास) नहीं पकते हैं तथा साथ-साथ छिद्र भी बड़े होते हैं।

१३. लमूपुछिया/लमूपुछड़ी

प्रसूत की बीमारी में इसका शिकार खिलाने से बीमारी ठीक हो जाती है। इस पक्षी से कुमाऊँनी की "कुकुलि दी पान-पान" विषयक लोक कथा जुड़ी है।

१४. सिटौल/सिण्टालु/सिण्टई (देशी मैना)

शरीर के किसी हिस्से से यदि बाल गिरने लगते हैं तो इस पक्षी का खून लगाने से खैर सी यह बीमारी ठीक हो जाती है। इनका झुण्ड जब "साँप-साँप" कहकर चहकता है, तो आस-पास साँप या बिल्ली होते हैं। इससे कुमाऊँनी की एक कहावत भी जुड़ी है - "गू नि खूँ, गू नि खूँ, गू नि खूँ कि खूँ"।

१५. स्तनि (कस्तूरी मृग)

१. नर कस्तूरी मृग की नाभि से कस्तूरी निकालकर इसका प्रयोग कई प्रकार की दवाओं में किया जाता है।

२. गै/गोरु (गाय)

पेड़ पौधों को कीड़े-मकोड़ों से बचाने के लिए गाय का गोबर का भ (राख) ड़ाला जाता है। गाय के गोबर के कन्ड़ों की राख अनाजों में ड़ालने से कीड़ा नहीं लगता। गाय का दूध अनेक रोगों में लाभप्रद होता है। बातरोग में गाय के घी की मालिश की जाती है। गाय के दूध से बना मक्खन सिर पर मलने से ठंडक मिलती है। गाय का गोबर और मूत्र शुद्ध माना जाता है। शवयात्रा से लौटने, रुजस्वला होने, प्रसूता होने आदि में गोमूत्र सिर पर शरीर पर छिड़का और पिया जाता है। गोमूत्र अनेक रोगों को नष्ट करता है।

३. ध्वड़ (घोड़ा)

घोड़े के बाल से मुस्कुट (मस्से) काटने का काम लिया जाता है। घोड़े की लीद उबालकर, कपड़छान करके छने द्रव को पेट दर्द में देने से पेट दर्द कम हो जाता है। घोड़े की नाल को दरवाजे के ऊपर लगाने से मकान को न नहीं लगती। घोड़े की नाल की शनिवार को बनी अँगूठी पहनने से शनिश्चर की दशा का प्रभाव कम होता है। घोड़े की लीद विष्टा कूप (Sptic tank ) में ड़ालने से उसमें कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं। घोड़े का मूत्र वायु, कफ और कृमिनाशक होता है।

४. चुथरौन/चुतरौल/चुतरौन

चुथरौल की हड्डी घिसकर नासूर में लगाने से नासूर ठीक हो जाता है।

५. जड्यौ/जड़ीया (बारहसिंगा)

सिरदर्द में बारहसिंगे के सींग को पानी के साथ घिसकर लेप करने से सिरदर्द ठाक हो जाता है। मोतियाबिन्द में इसके सींग को घिसकर लगाने से लाभ मिलता है। इसके सींग को घिसकर कान में ड़ालने से कान का बहना बन्द हो जाता है। जड्यों का सींग मक्के की कलगी से दाने निकालने के काम भी आता है।

६. पणोद (उदबिलाव)

उदबिलाव का दीखना शुभ माना जाता है। इसका माँस गर्म तासीर वाला होता है।

७. बल्द (बैल)

बैल की खाल से ढ़ोल नगाढ़े आदि गढ़े जाते हैं। जब गाय-बैल पूँछ उठाकर एकाएक तेज भागते हैं या उछल-कूद करतै हैं तो वर्षा होती है।

८. बाकर (बकरी)

बकरी का पित्ताशय निगलने से आँखों की ज्योति बढ़ती है। बकरी का दूध स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है। बकरी की सूखी मैगनी को पासकर घाव पर लगाने से घाव जल्दी ठीक हो जाता है। बकरी के आमाशय से हुडुक (Kettle-drum ) तथा त्वचा से ढ़ोलक मढ़ी जाती है। बकरी के पाँवों का सूप गर्म तासीर वाला होता है। बकरी की खाल को घरों में बिछावन की तरह प्रयोग करते हैं।

९. बाग (बाघ) चीता

बातरोग या बदन दर्द में इसकी चर्बी की मालिश से लाभ मिलता है। इसके नाखून और आदमी की मूँछ के बाल ताबीज में बन्द कर बच्चों के गले में बाँधने से उन्हें न नहीं लगती और उन्हें भूत-प्रेत का डर नहीं रहता। इसके कन्धे की हड्डी जो लाठी की तरह होती है सम्मोहन के काम में आती है।

१०. बिरालु/बिराउ (बिल्ली)

बिल्ली का रोना अशुभ होता है। मुँह के दाद को बिल्ली यदि अपने जीभ से चाटे तो दाद ठीक हो जाता है। पशुओं का टीला (खाँसी) की बीमारी में पीठे के साथ बिल्ली की विष्ठा देने से बीमारी ठाक हो जाती है। बिल्ली का सद्य: निसृत औंरा (फली, बीजाँडासन = placentra ) घर में सँभालकर रखना शुभ माना जाता है। कहीं जाते समय बिल्ली का रास्ता काटना अशुभ समझा जाता है। दो बिल्लियों का लड़ना अशुभ माना जाता है। बिल्ली और साँप अपना-अपना पूँछ हिलाकर मन्त्र युद्ध करते हैं इसमें जो हारता है वह मर जाता है ऐसी मान्यता है।

११. भालु (भालू)

गठिया बात में भालू की चर्बी से मालिश करने पर पुराना से पुराना गठिया बात रोग ठीक हो जाता है। भालू के पित्ताशय (gall bladder ) से मलेरिया रोग का उपचार किया जाता है। पित्ताशय सुरक्षित रखने का तरीका - भालू का पित्ताशय निकालकर उसमें साफ चावल के दाने भर दिए जाते हैं और इसे वायु शुष्क (Air dry) कर दिया जाता है। सूखने के बाद पित्ताशय के भीतर पीला पाउडर बन जाता है, जो लम्बी अवधि तक प्रयोग में लाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भालू औरतों के साथ सम्भोग की इच्छा रखता है।

१२. भैंस तथा भैंसा/जती/जतिया

भैंस के गोबर का शरीर पर लेप करने और दूध, दही खाने से भैंसिया पित्ती (बड़ी पित्ती) ठीक हो जाती है। भैंस/भैंसा की खाल से ढोल-दमामौ मढ़े जाते हैं। भैंस/भैंसा के गोबर की भ पेड़ पौधों पर डालने से कीड़े-मकौड़े नष्ट हो जाते हैं। भैंस की बछिया की खाल की ट्यूब बनाकर तैरने में काम आती है। भैंस के ताजे खून में पाँव रखने से मसूर खुम (पैर के तलवे की कील) ठीक हो जाती है। जिन मन्दिरों में चैत या असौज में भैंस की बलि दी जाती है वहाँ उक्त कष्ट से पीड़ित रोगी उसमें पाँब रखते हैं। भैंस/भैंसा की जंगल में पड़ी सींग के ऊपर जमी फफूँद (fungus ) को निकाल कर लगाने से कण्ठ (गर्दन) खुजली ठीक हो जाती है। भैंस या भैंसा का मूत्र बवासीर में लाभप्रद होता है। यह उदर के रोगो में भी लाभप्रद होता है। गाय-भैंसों को जब 'छिपड़ी' नामक बीमारी होती है तो उनके नाक मुँह सूख जाते हैं, आँतों में छिपकली जैसी आकृति बन जाती है। भैंस की खाल का रंग लाल हो जाता है। इस बीमारी के इलाज के लिए लोग गाय या भैंस की आँतों में बने छिपकलियों की आकृति के माँस को टुकड़ों को निकाल लेते हैं और उन्हें सुखा लेते हैं। जब गाय भैंसों को यह बीमारी होती हैं तो छिपकली के आकार के ये माँस के टुकड़े पानी में घिसकर, गाय के छिपड़ो को बीमार भैंस को तथा भैंस को छिपड़ों को बीमार गाय को देते हैं, जिससे उनकी बीमारी तुरन्त ठीक हो जाती है।

१३. मुस (चूहा)

महिलाओं को प्रसूत की बीमारी में चूहे का शिकार खिलाने से लाभ मिलता है। चूहे का शिकार सद्य: प्रसूता को देने से उसका दूध बढ़ जाता हैं। इसका शिकार खाने से बवासीर के मस्से गिर जाते हैं। चूहे का शिकार आँव की बीमारी में भी लाभप्रद होता है। चूहे की विष्टा को ककड़ी के बीजों के साथ पीसकर नाभि पर लगाने से तुरन्त पेशाब हो जाती है। चूहे का शिकार आँखों की रोशनी बढ़ाता है। चूहे के बिल से निकली मिट्टी मुस्कुटों पर रगड़ने से वे ठीक हो जाते हैं।

१४. स्याल/स्याव (सियार)

सियार की खाल से ढोल-दमौं मढ़े जाते हैं। फ्यौण (एक विशेष सियार) यदि तीन बार भौंके, तो किसी की निश्चित ही मृत्यु होती है। लिंग और दोनों अंडकोष दबाने से सियारों का भौंकना बंद हो जाता है। इस जानवर को बहुत चतुर माना जाता है तथा इससे यह कहावत जुड़ी है - "स्यावक जसि बुद्धि है जॉ"।

१५. सॅस (खरगाश)

दमा की बीमारी में खरगोश का माँस लाभप्रद होता है।

१६. सङ्र/सुअर

दमा के रोगी के सुअर का माँस खिलाया दाता है। सुअर के कान की हड्डी घिसकर कान में ड़ालने से कानदर्द ठीक हो जाता है। सुअर की नाभि को घिसकर दमा के रोगी के कण्ठ में लेप करने से आराम मिलता है। सुअर का पित्ताशय शरीर का तापमान बढ़ाने के काम आता है। शरीर का तापमान कम होने पर पित्ताशय पानी में घोलकर पिलाने से शरीर का तापमान बढ़ा जाता है। वैद्य लोग सुअर के पित्ताशय को भालू के पित्ताशय की ही भाँति सुरक्षित रखते हैं।

१७. सौल/शौल/साही

साही के बालों की कलमें बनती हैं। साही का काँटा यज्ञोपवीत में काम आता है। साही का काँटा किसी के घर में रख दिया जाता है तो उस परिवार के सदस्यों में आपस में झगड़ा होता रहता है। बात रोग में इसका माँस खाने लाभप्रद होता है।

इन पशु-पक्षियों व जानवरों के प्रति दयाभाव व इनसे जुड़ी परम्परागत मान्यताओं के बावजूद इनकी संख्या का निरंतर कम होना विचारणीय (विषय) प्रश्न है। इन पशु-पक्षियों के संरक्षण के प्रति सजग रहकर हिमालय की इस अमूल्य धरोहर को हमें बचाना होगा।




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